शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

पैदल हरकारे -१८५७ के महान सेनानी

अरविंद कु मार सिंह
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ( 1857-1859) की विफलता में बहुत से कारणों का उल्लेख किया जाता है पर संचार तंत्र पर लोगों की निगाह कम ही जाती ,जिसने उस जमाने में अंग्रेजों को बहुत ताकत दी। संयोग से प्रथम स्वाधीनता संग्राम के कुछ समय पहले ही अंग्रेजों ने भारतीय डाक और तार प्रणाली को व्यवस्थित और राष्ट्रव्यापी रूप प्रदान किया था। उस जमाने का सबसे तेज हथियार इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ यानि तार की लाइने कई महत्वपूर्ण हिस्सों में बिछ चुकी थी। हमारे स्वातंत्र्यवीरों को तार के बारे में बहुत सीमित ज्ञान था. इसी नाते दिल्ली समेत कई जगहों पर तारघरों पर कब्जा कर लेने के बाद भी वे उनका अपने हक में इस्तेमाल नहीं सके । 1857 के महान सेनानियों के पास साधनविहीन और आम तौर पर पैदल हरकारे (मेल रनर्स) ही संचार के सबसे ताकतवर साधन थे। इन दिलेर और राष्ट्रप्रेमी हरकारों की ही मदद से बागी नेताओं में एक मजबूत संचार सेतु स्थापित किया जा सका था। यही नहीं तमाम जगहों पर पैदल हरकारों तथा डाक कर्मचारियों के साथ रियासती डाक व्यवस्था से जुड़े डाfकयों ने ऐतिहासिक बलिदान दिया।भारतीय डाक कर्मचारियों और बागियों के लिए जान हथेली पर लेकर संवाद स्थापित करानेवाले हरकारों की बलिदानी भूमिका को आज भी उचित सम्मान मिलना शेष है। आम तौर पर डाक विभाग से जुड़े सभी कर्मचारियों को इतिहासकार एक ही डंडे से हांकते हैं और मानते हैं fक इस विभाग ने अंग्रेजों की काफी मदद की । बेशक कई जगह डाक गाडिय़ों ने सैन्य संचालन में मदद पहुंचाने का काम fक या और कई जगहों पर डाकघरों की मदद से क्रांतिकारियों के बारे में सूचनाए सेनाधिकारियों तक भेजी गयीं, पर इसका अर्थ यह नहीं fक सब अंग्रेजों के ही पिट्ठू बने थे। जब देश का एक बड़ा हिस्सा आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल हो गया रहा हो तो डाक कर्मी मौन कैसे रह सकते थे। जिस आंदोलन की धारा में व्यापारी, fकसान, मजदूर, पुलिस के जवान और सरकारी कर्मचारी शामिल रहे हों उसमें देश तथा समाज की दशा और दिशा को बारीकी से समझनेवाले डाक कर्मचारी कैसे नही शामिल नहीं हुए होंगे।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दिनो में भारत में संचार साधनों की हालत बहुत दयनीय थी। जो ताकतवर हथियार रेल और तार 1857 में अंग्रेजों के लिए प्राणवायु साबित हुआ,उसकी भी पहुंच सीमित हिस्सों में थी। धीमी रफ्तार से पैदल या घोड़े के भरोसे डाक चलती थी और उस जमाने में अधिकतर इलाको में नदियों पर पुल नहीं थे, सड़को की दशा दयनीय थी और अधिकतर पैदल रास्ते घने जंगलों से होकर गुजरते थे। ये रास्ते जंगली जानवरों तथा डाकुओं के नाते इतने असुरक्षित थे fक बिना कारवां के इस ओर जाना भी बेहद कठिन होता था। ऐसे दौर में एक से दूसरे जगहों पर आना जाना या कोई संदेश भेजना fक तना कठिन रहा होगा,यह बात आज की संचार क्रांति में जी रहे लोग और खास तौर पर नौजवान आसानी से नहीं समझ सक ते हैं। उस जमाने में बैलगाड़ी, नाव, ऊंट,तांगा और घोड़ो से लेकर बंहगी और पालकी जैसे धीमी गति के साधनो से ही संदेशे जाते थे। छोटा सा संदेश भी गंतव्य तक पहुंचने में 15-20 दिन तक समय लगा देता था। उस समय के उपलब्ध ब्यौरे और दस्तावेजों के मुताबिक सूरत से आगरा पहुंचनेवाले कारवां को 35-40 दिन सफर में ही बिताने पड़ते थे। उस जमाने में आम आदमी या तो पैदल या बैलगाडी में ही सफर करता था। अच्छी नस्ल के घोड़े काफी मंहगे और आम आदमी की हैसियत से बाहर थे। अलबत्ता राजस्थान ,गुजरात और सिंध में डाक व सवारी के लिए उस समय व्यापक पैमाने पर ऊंटो का प्रयोग होता था। वहां की स्थानीय स्थिति में और साधन कारगर नहीं थे। यह जरूर उल्लेखनीय बात है fक 1857 से कुछ पहले ही भारत में रेल और तार का आगमन हुआ था । उसी दौरान अंग्रेजों ने अपनी डाक व्यवस्था को भी एक ठोस स्वरूप दिया था। तीनो साधन अंग्रेजों के लिए बहुत मददगार रहे,इसमें कोई संदेह नहीं है। इसी नाते 1860 के बाद अंग्रेजों ने तीनो साधनों के तीव्र विकास की ओर विशेष जोर दिया।
वैसे भी 1857 के पहले अंग्रेजो ने देसी डाक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ कर तहस नहस कर दिया था। 1854 में केंद्रीय डाक व्यवस्था बनाकर डाक घरों के पहले महानिदेशक की नियुक्ति कर राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत तंत्र खड़ा करने की पहल की गयी थी। उसी साल पहली बार भारत में डाक इक ट जारी हुए ,जिसने पत्र भेजने के दूरी की बाधाओं को समाप्त कर दिया। बैरंग पत्रों की शुरूआत उसी समय हुई थी। 1856 में 40 डाक मंडल बना क र डाक व्यवस्था को और भी मजबूत बनाया गया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत में साक्षरता दर महज एक फीसदी होने के नाते पत्राचार सीमित था। उसी प्रकार तार का उपयोग भी आम भारतीय नाम मात्र करते थे। उस समय सभी श्रेणी के पत्रों की सालाना आवाजाही सवा क रोड़ थी। लेकिन उस समय के उपलब्ध दस्तावेज और रिकार्ड बताते है fक वर्ष 1857 और 1858 के दौरान डाक विभाग में रिकार्ड 23 लाख पत्र डेड लेटर आफिस (डीएलओ) वापस लौटे। डेड लेटर आफिस में वापस लौटे पत्रों का संकलन होता था। उस समय इतनी बड़ी मात्रा में पत्रों का वापस लौटने का आंकड़ा fकसी को भी चौंकाने के लिए काफी है। यह सही है fक उस समय आधुनिक पत्र संस्कृति विकसित नहीं हुई थी और बहुत से पत्रों पर ठीक से पते भी नहीं लिखे होते थे । पर 23 लाख पत्र सिर्फ़ इस नाते नहीं वापस आए थे। इन पत्रों का क्रांति ,बगावत और पलायन से संबंध था। डाक विभाग की एक रिपोर्ट बताती है की उस दौरान बगावत में बहुत से लोग या तो मार दिए गए या अपने ठिकानो से पलायन कर गए थे। बात दोनो में कोई रही हो पर हालत की गंभीरता और जमीनी हकीकत दोनो का प्रकट उल्लेख किए बिना नहीं रहती है। ऐसे दौर में जबfक उ।प्र., बिहार,दिल्ली तथा हरियाणा के तमाम इलाको में गांव के गांव तोप लगाक र उड़ाए जा रहे हों और फांसी के फंदों से पेड़ तक झुक गए हों ,सड़के खून से लाल हो गयीं हों तो वापस आए पत्रों का आंकड़ा हकीकत बयान ही करता है।अंग्रेजों के पास सबसे ताकतवर और तेज साधन तार (टेलीग्राम) था। पर बागियों के पास सिर पर कफन बांध कर संदेश लाने और ले जानेवाले हरकारों की कमी नहीं थी। उस जमाने में मुख्य क्रांति केद्रों में हरकारे ही संचार के सबसे बड़े साधन थे। डाक की जीवन रेखा कही जानेवाली जी.टी रोड उस समय काफी लम्बी दूरी तक बागियों के कब्जें में थी। इस सड़क को अपने कब्जे में लेने और रानीगंज, बनारस, इलाहाबाद, आगरा, अलीगढ़ ,मेरठ ,अंबाला तथा लाहौर जैसे प्रमुख शहरों तक सुगम यातायात के लिए अंग्रेजों को बागिओं और खास तौर पर fकसानो और जवानो से एक -एक इंच लडऩा पड़ा। इसी के बाद सड़क की सुरक्षा के लिए विशेष पुलिस तैनात हुई और देर रात तक पहरा शुरू हुआ। यह पहरा क्रांति की आग बुझने के बाद भी काफी समय तक जारी रहा।
काफी बड़े इलाको में फैली 1857 की क्रांति का संचालन उस दौर में fकतना कठिन रहा होगा,जब संचार तंत्र दयनीय अवस्था में था। अंग्रेजों के पास अपना मजबूत खुफिया तंत्र और उन्नत हथियार थे। तमाम ताकतवर राजाओं का समर्थन भी उनके पास था ही। फिर भी कोलकाता से पेशावर तक जो ज्वाला उठी उसके पीछे कोई संगठन और आपसी संवाद तो निश्चय ही हो रहा होगा। 31 मई 1857 को क्रांति की तिथि तय की गयी थी,इसके ठोस साक्ष्य नहीं मिले हैं। फिर भी तमाम ऐसे पत्र जरूर अंग्रेजों के हाथ लगे थे उनसे पता चलता है fक सेना की विभिन्न रेजीमेंटों के बीच बगावत संबंधी पत्राचार code word में हो रहा था। क्रांति के पूर्व प्रमुख नेताओं के दूत या हरकारे मदद के लिए राजाओं और सैनिको के साथ प्रभावशाली लोगों से संवाद क र रहे थे। महान क्रांति नायक नाना साहब के कई दूत चुनिंदा राजाओं के दरबार में विशेष पत्र पहुंचा रहे थे,जब fक फैजाबाद के · मौलवी अहमद उल्लाह शाह उर्फ डंका शाह तथा कई अन्य सन्यासी और फकीर 1857 से पहले उन कई जगहों पर क्रांति की ज्वाला फैलाने में लगे थे,जो जनक्रांति के महान केद्र बने। फकीरों तथा साधुओं ने अथवा अन्य लोगों ने उनके वेष में कई नगरों और सैनिक छावनियों में संदेश और सूचनाएं भेजने मे मदद की । इस तरह देखें तो संवाद संबंधी रणनीति काफी ठोस और सुलझी हुई थी। ले.जनरल ए.इनेस ने लिखा है गुप्त पत्र व्यवहार सबसे पहले मुसलमानो ने fकया। उनके पत्रों में गुप्त लिपियों का प्रयोग होता था। इन पत्रों का सिपाहियों मे व्यापक प्रचार हो गया और काफी पत्र पकड़े भी गए। मूसाबाग (लखनऊ) में पैदल सेना की दो रेजीमेटों ने जब विद्रोह किया तो सैनिको के पास ऐसे पत्र मिले ,जिसमें पैदल रेजीमेंट नंबर 48 को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया गया था। इस तरह बनारस में रेजीमेंट 37 के एक हवलदार तथा बैरकपुर के एक भारतीय अधिकारी का पत्र पकड़ में आया, जिसने रीवा नरेश को लिखा था fक अगर वह अंग्रेजों से युद्द करें तो दो हजार लोग उनका साथ देने के लिए तैयार हैं। पत्रों के आधार पर ही ये नेता मई 1857 में गिरफ्तार भी हुए । इस तथ्य की तरफ संभवत: इतिहासविदों का ध्यान नहीं जाता fक मंगल पांडेय की फांसी और 10 मई 1857 को मेरठ में हुई बगावत से भी पहले 23 जनवरी 1857 को रानीगंज छावनी में रहस्यमय आग लगी थी और इसके बाद 25 जनवरी को ही बैरकपुर का तारघर भी जला डाला गया था। तारघर जलाना एक बड़ा संकेत था। पर मेरठ के बागी सैनिको ने दिल्ली पहुंच कर जब 11 मई 1857 को हिंदुस्तान का बादशाह बहादुर शाह जफर को घोषित कर दिल्ली आजाद करा लिया तो उसके तत्काल बाद ही पैदल और घुड़सवार हरकारों की मदद से जल्दी ही क्रांति की चिंगारी कई हिस्सों में फैलायी गयी। इस क्रांति की व्यापकता खुद यह संकेत देती fक इसके विस्तार के पीछे कितने लोगों का श्रम और बलिदान निहित रहा होगा। जाहिर है यह काम क्रांतिवीरों ने हजारों साधनविहीन गरीब पैदल हरकारों की मदद से हुआ । यही हरकारे ही बागियों की संचार व्यवस्था के आधारस्तंभ थे । गरीबी के बावजूद ये अंग्रेजों के प्रलोभन की चपेट में नही आए और इन्होने अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। दिल्ली पर कब्जे और बहादुर शाह जफर को बादशाह घोषित क रने के बाद जिस तेजी से उत्तर भारत के विभिन्न इलाको में संगठन हुआ,उसमें हरकारों की कम भूमिका नहीं थी। अगर तार तथा अंग्रेजों की भारी भरक म तैयारियों के बाद भी विभिन्न जगहों से बड़ी संख्या में बागी सैनिक दिल्ली पहुंच रहे थे तो जाहिर है कोई तो तार रहा होगा।
मई तथा जून महीने में नसीराबाद, लखनऊ, मथुरा, झांसी ,जालंधर,इलाहाबाद तथा मेरठ से बड़ी संख्या में सैनिक दिल्ली पहुंचे। झज्जर के सैनिक 18 मई को , आगरा तथा मथुरा के सैनिक 12 जून ,रोहतक के सैनिक 14 जून को दिल्ली पहुंचे। इनमें काफी अश्वारोही थे और उनके पास तोपखाना भी था। फिरोजपुर छावनी के बागी सैनिक तोपखाने के साथ 24 जून को दिल्ली पहुंचे ,जबfक बरेली से काफी बड़ी संख्या में सैनिक साजो- सामान के साथ 18 जुलाई को दिल्ली आए। झांसी का दो और जत्था 6 और 25 जुलाई को दिल्ली आया। इसी प्रकार ग्वालियर के सैनिक 2 जून को ,नीमच के सैनिक 31 जुलाई को दिल्ली आए। बड़ी संख्या में बागी रास्ते की लड़ाई में शहीद हो गए। मिश्रर आफिस अंबाला के 28 अगस्त 1857 के पार्लियामेंटरी पेपर्स में ,दिल्ली में प्रधान सेनापति के मीर मुंशी रजब अली खां द्वारा 14 अगस्त 1857 को तैयार व्यौरा मिलता है जिसमें अलग- अलग जगहों से दिल्ली पहुंचने वाले सैनिको की संख्या 4000 अश्वारोही, 12,000 पैदल आंकी गयी है। इनके साथ 30 तोपें भी थीं। 100 अश्वारोही और 3000 पैदल सैनिको को अनुशासनहीन की श्रेणी में रखा गया था। यह संख्या क म या ज्यादा भी हो सक ती है,पर उस जमाने में दिल्ली में विभिन्न जगहों से इतनी बड़ी संख्या में सैनिको दिल्ली पहुंचना साफ करता है fक हरकारों के माध्यम से उनको दिल्ली की घटनाओं के बारे में सारी सूचनाएं मिल गयी थीं। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं fक दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा समाप्त होने के बाद वहां की डाक व्यवस्था काफी खराब थी। दिलचस्प बात यह है fक क्रांतिकरिओं ने दिल्ली में टेलीग्राम दफ्तर को अपने कब्जे में ले लिया था। लेकिन यह टेलीग्राम का दफ्तर उनके लिए किसी काम लायक नहीं था क्योंकि तार का संचालन भारतीय क्रांतिकारिओं में किसी को नहीं आता था। सैनिको को अग्रेजी ज्ञान नहीं था। इस नाते इस तारघर को नष्ट दिया गया। पर दिल्ली बेहतर डाक व्यवस्था तुंरत नहीं हो सकी । इसी नाते देहली उर्दू अखबार ने 24 मई 1857 को और उसके बाद टिप्पणी की और कहा समस्त कामो की अपेक्षा डाक प्रबंध आवश्यक है। कुछ प्रबंध आरंभ हुआ था पर सवारों की नियुक्ति न होने के नाते विफल रहा। दिल्ली की डाक व्यवस्था भले लचर रही हो पर अलग-अलग इलाको से दिल्ली पहुंच रहे हरकारों के नाते देश के तमाम हिस्सों में बहादुर शाह जफर के पत्र तेजी से पहुंच रहे थे। 16 मई 1857 को उन्होने पटियाला, जयपुर, अलवर, जोधपुर, कोटा, बूंदी तथा कई अन्य राजाओं को दिल्ली आने को कहा । बहादुर शाह जफर ने जब जून 1857 में अपना ऐतिहासिक घोषणापत्र जारी किया तो उसमें यह बात खास तौर कही गयी--इस घोषणापत्र की प्रतियां हर स्थान पर प्रसारित की जायें और इस कम को युद्द से कम महत्व का न समझा जाये। घोषणापत्र मुख्य स्थानो पर चिपका दिया जाये जिससे सारे हिंदू और मुसलमान इस विषय में ज्ञान प्राप्त कर तैयार हो जायें। इससे तो यह साफ है ,बादशाह बेहतर डाक तंत्र चाहता था और सेना के लोग भी। इसी नाते 10 जुलाई 1857 को बादशाह कोर्ट के सदस्यों ने उससे निवेदन किया िक 1500 पैदल तथा 500 सवारों को दो तोपों के साथ गांवो में पुलिस थाने तथा डाक का प्रबंधन करने के लिए भेजा जाये जिससे बादशाह के राज्य की स्थापना की विषय में लोगों को ज्ञान प्राप्त हो जाये। 21 अगस्त 1857 को बादशाह ने बागपत के जमींदारो को पत्र लिखने के साथ सोनीपत, पानीपत, बहादुरगढ़ तथा मेवात के गावों के मुख्य सरदारों और जमींदारों को रसद और मालगुजारी के बारे में पत्र लिखा। इन इलाको से लगातार बादशाह को पत्र मिल रहे थे। इस तरह एक ठोस संचार तंत्र बन चुका था।वैसे डाक विभाग की वार्षिक रिपोर्टों में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है,पर तारों के रिकार्डो से यह खुलासा हो ही जाता है िक बहुत से अंग्रेज भक्त देसी राजाओं के डािकयों व हरकारों की मदद से अंग्रेज डाक अधिकारी बागियों की गतिविधियों ,सड़को की स्थिति तथा इलाको का हाल चाल जान रहे थे और उसे अंग्रेज अफसरों तक भेज रहे थे। पर बड़ी संख्या में हरकारे बागिओं की मदद में खड़े थे।
1837 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में पत्रों सरकारी एकाधिकार कर लिया और तमाम इलाको की मजबूत देसी डाक प्रणाली और नामी हरकारों को अपना काम बंद करना पड़ा था। इसके बाद 1854 नेे रही सही कसर पूरी कर दी। अंग्रेज हरकारों की नियुक्ति के समय बहुत सतर्क रहते थे और उनकी कड़ी जांच की जाती थी,पर उन पर विश्वास नहीं किया जाता था। उनसे बहुत अमानवीय व्यवहार होता था। हरकारों को अवकाश पर जाने के लिए एक माह पूर्व सूचना देनी पड़ती थी। ऐसा न करने पर उनको एक माह की जेल और जुर्माना दोनो अदा करना पड़ता था। अंग्रेजों ने 1822 में ही हरकारों की जगह तेज घोड़ो के उपयोग का फैसला किया था पर इसे बदलना पड़ा क्योंिक हरकारों की तुलना में घोड़े धीमी गति से चल रहे थे। कोलकाता -मेरठ के बीच की जो डाक हरकारे 10 दिन में पैदल पहुंचा देते थे वही घोड़े 12 दिन में पहुंचा रहे थे। इसी तरह अंग्रेजों ने अवध जैसे इलाको की बेहतरीन बादशाही डाक समाप्त क र हजारों हरकारों को घर बिठा दिया। ऐसे में 1857 में हरकारों का एक बड़ा वर्ग देसी राजाओं और क्रांतिकारिओं के साथ जुड़ गया। इसी नाते जहां कहीं हरकारे पकड़े गए उनको फांसी पर ही लटकाया गया।
लेकिन जहां मौका मिला अंग्रेजों ने तार की तरह ही डाक का भी काफी उपयोग बगावत दबाने के लिए िकया। इसी नाते कई जगहों पर डाक विभाग भी बागियों का शिकार बना। 1857 में बंबई सर्किल में 10 डाक बंगले और 7 डाक घर जलाए गए। 10 डाक घर को बंद ही कर देना पड़ा। महान सेनानी वीर कुवर सिंह ने सासाराम -बनारस तथा सुरेंद्र साय ने बंबई -कोलकाता डाक लाइन को लंबे समय तक बाधित रखा। 1857 में काफी महत्वपूर्ण शिमला के पोस्टमास्टर एफ. डाल्टन दिल्ली में क्रांतिकरिओं के हाथ पड़ गए तो उनको मौत के घाट उतार दिया गया ।
1857 में क्रांतिकरिओं की मदद के लिए कई स्थानों पर हरकारों की समानांतर डाक सेवा चल रही थी। कई जागीरों के पास तो अपनी डाक व्यवस्था थी, पर बहुत सी जगहों पर महाजनी डाक व्यवस्था भी बागियों की मदद अपने हरकारों के द्वारा चला रही थी इस बात के ठोस प्रमाण मिलते हैं। खास तौर पर अवध में पूर्व हरकारे भी इस मौके पर मैदान में उतर आए थे। अंग्रेजों के खिलाफ जब पूरा अवध सड़क पर आ गया हो तो वे मौन कैसे रह सकते थे। उनके साथ ही हजारों खबरनवीस भी बागियों की मदद कर रहे थे । इसी नाते अंग्रेजी खेमे की बहुत सी महत्वपूर्ण सूचनाएं बागियों तक पहुंच रही थी। अंग्रेजी डाक भी बागियों के निशाने पर थी और बहुत सी जगहों पर गांव वाले डाक छीन लेते थे। बहुत से इलाको में तो लंबे समय तक डाक लाइने चालू नही हो सकी । इन बातों से नाराज अंग्रेजों ने हरकारों और ग्रामीणों किसी को नहीं बख्शा। बागी नेताओं के बहुत से पत्र अंग्रेजों को मिले ,जो बाद में उनके लिए फांसी का फंदा बने। इन पत्रों या उसके जवाब में हरकारों का उल्लेख तथा ब्यौरा भी रहता था। ऐतिहासिक दस्तावेजों में हरकारों को फांसी पर लटकाने की घटना मौजूदा उ.प्र. के जौनपुर जिले में मिलती है। बनारस में रह रहे जगदीशपुर निवासी ईश्वरी प्रसाद महाजन बागियों के लिए एक समानांतर सेवा चला रहे थे। इस सेवा के 8 हरकारे भवानी भीख, मेंहदी, नारायण कुर्मी, बांदी कुर्मी, मकदूम , शीतल ,बुद्दन,अयोध्या, तथा मिधई आदि जलालपुर (जौनपुर) के थानेदार गंगाशरण की पकड़ में आ गए। उनके पास बगावत में शामिल कुछ राजाओं के पत्र मिले । थानेदार ने इन हरकारों को बनारस अंग्रेज अफसरों को सौंप दिया। 13 सितंबर 1857 को थानेदार ने सबसे पहले नोहारी अहीर को पकड़ा , जिससे पता चला लखनऊ के ईश्वरी प्रसाद महाजन डाक सेवा चला रहे थे। इसके बाद कोतवाली जौनपुर निवासी हर दत्त चौबे तथा भैरों चौबे पकड़े गए। इसके बाद और हरकारे पकड़े गए तथा उनके पास दो फारसी में लिखे पत्र मिले । एक पत्र लखनऊ के तारानाथ ने ज्वालानाथ को लिखा था। दूसरे पत्र में लिखनेवाले या पानेवाले का नाम नहीं था,पर उस लंबे पत्र में लिखा था - बनारस अंग्रेजों के कब्जे में है वहीं राजा बनारस अंग्रेजों की गोद में बैठा है। इलाहाबाद की तरह यहां भी उपद्रव होना चाहिए।....इन हरकारों से बनारस में हुई पूछताछ मे कई जगहों पर तैनाती की जानकारी मिली । वे बनारस के महाजन भैरो प्रसाद के आदेश से डाक लाते थे और उसे सही जगह पहुंचाते थे। डाक प्रबंधन संबंधी सारे कार्य भैरो प्रसाद, ईश्वरी प्रसाद तथा जयदयाल देखा करते थे। 16 अक्तूबर 1857 को विशेष आयुक्त जौनपुर,एच.जी.एस्टेल की अदालत ने इन सभी आठ हरकारों को राजद्रोही घोषित करते हुए फांसी की सजा सुना दी। यही नहीं महाजन भैरो प्रसाद को भी गिरफ्तार करके उनको फांसी दे दी गयी। 18 जनवरी 1858 के पत्र संख्या 93 के तहत तहत संयुक्त सचिव ,भारत सचिव ने बाबू भैरो प्रसाद की सारी संपत्तियों और सामानो को जव्त करने का आदेश दे दिया।
रानी लक्ष्मीबाई तथा अन्य क्रांतिकरिओं के पत्र भी हरकारे लंबी दूरी तक पहुंचा रहे थे और बहादुर शाह जफर का फरमान भी इसी तंत्र से तमाम जगहों तक जा रहा था। पर ऐसे पत्र बगावत के बाद बहुत से लोगों के लिए गले की फांस बने। बहादुर शाह जफर को जिन लोगों ने पत्र लिखे थे उनको अंग्रेजों ने फांसी के फंदे पर लटका दिया। चाहे वे बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह हों या फिर झज्जर के नवाब ,इनको फांसी की पृष्ठïभूमि में पत्राचार ही मुख्य आधार बना। जिन बागी नेताओं ने संचार व्यवस्था को प्रभावित किया या ठप करने का प्रयास किया ,वहां अंग्रेजों ने विशेष ध्यान दिया। अमोढ़ा (बस्ती) की महान सेनानी रानी तलाश कुवरि ने अयोध्या से आगे घाघरा के घाटों पर रात दिन पहरेदारी करा कर अंग्रेजों का संचार तंत्र १८५७ से मार्च 1858 तक पूरी तरह ठप कर दिया था। रानी को नियंत्रित करने के लिए बड़ी सेना भेजी गयी और रानी शहीद हुईं। इसी तरह राणा बेनी माधव गंगा तट तथा लखनऊ कानपुर रोड पर अंग्रेजों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने रहे। राजा देवीबख्श सिंह गोंड़ा में लंबे समय तक परेशानी बने। जब अंग्रेज यह घोषित कर रहे थे िक जंग समाप्त हो गयी है तो नेपाल की तराई से बेगम हजरत महल ने 1859 में अवध की जनता से यह अपील की -विधर्मियों (अंग्रेजों ) के आने-जाने पर निगाह रखो,नदियों के सब घाटों पर पहरा रखो,उनके पत्र व्यवहार को बीच में रोक दो। उनकी रसद रोको ,उनकी डाक चौकिओं को तोड़ दो। ..... उनको क हीं शांति से न बैठने दो।
pai

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