सोमवार, 25 अगस्त 2008

भारतीय सेना डाक सेवा

सबसे दुर्गम इलाके में भी दुनिया की सबसे तेज डाक सेवा
अरविंदकुमार सिंह
मेरे साथियों अंत समय है,कर दो मुझ पर यह उपकार
मेरे घरवालों को लिख दो,चिट्ठी में बातें दो चार
लिख दो, मैने देश की खातिर अपनी जान गंवाई है
लिख दो,यह तो हर फौजी की सबसे बड़ी कमाई है.
यह रचना कपोल कल्पना मात्र नहीं, एक फौजी कवि के जीवन की वास्तविक घटना है .सोनीपत (हरियाणा) के निवासी फौजी मेहर सिंह ने बहुत सी रचनाऐं लिखी हैं,जो हरियाणा के देहाती इलाको में बहुत लोकप्रिय हैं. पर यह उनकी आखिरी रचना है, जो 1944 में युद्द के मैदान में उनकी शहादत के पूर्व रची गयी थी. फौजी अपने कठिन जीवन के हर मोरचे पर चिट्ठी को सीने से लगा कर रखता है.और तो और शहादत के बाद अगर उसके पास कुछ अपना निजी सामान उसकी जेब से निकलता है तो वह चिट्ठी ही होती है.युद्द का मैदान हो या शांतिकाल फौजी के लिए चिट्ठी रोटी से भी अधिक महत्वपूर्ण है।टेलीफोन, मोबाइल या ईमेल सैनिको को अपने प्रियजनो के हाथ से लिखी पाती जैसा सुख- संतोष दे ही नहीं सकता.घर-परिवार से आया पत्र जवान को जो संबल देता है, वह काम कोई और नहीं कर सकता. माहौल कैसा भी हो,सैनिक को तो मोरचे पर ही तैनात रहना पड़ता है.ऐसे में पत्र उसका मनोबल बनाए रखने में सबसे ज्यादा मददगार होते हैं.इसी नाते सेना के डाक घरों का बहुत महत्व है.भारतीय जवानों की तैनाती सरहद पर हो या देश-विदेश के किसी भी कोने में हो ,उनके पास अधिकतम तेजी से डाक सेवा सुलभ कराने का काम भारतीय सेना डाक सेवा कर रही है.भारतीय सेना डाक सेवा कोर की सेवाऐं भले ही तमाम कारणों से सीमित प्रचार पा सकी हों,पर वास्तविकता यह है िक यह दुनिया की सबसे तेज और समर्पित डाक सेवा का संचालन क रती है.सेना के बेस डाक घर पूरे साल चौबीसों घंटे काम करते हैं और सैनिको की सभी डाक जरूरतों को पूरा करते हैं. 1856 से लगातार व्यवस्थित शक्ल में सैनिक अभियानो के साथ ये डाक घर दुनिया के तमाम हिस्सों में सेवाऐं प्रदान कर रहे है.1 मार्च 1972 से सेना डाक सेवा कोर के रूप में इसे मान्यता मिली.अपनी सैनिक भूमिका के मुताबिक सेना डाक घर पूरी तरह मोबाइल और सभी साधनो से लैस हैं.तंबू, ट्रक , खुले मैदान और बंकर से भी ये अपने काम को अंजाम देते हैं.इस कोर का अपना झंडा सफेद और लाल, उड़ता राजहंस और नारा है मेल- मिलाप. युद्द हो या शांतिकाल इस सेवा का काम हमेशा चलता रहता है.सेना डाकघरों और भारतीय डाक के बीच बहुत गहरा नाता है.दो संगठन एक - दूसरे के अनुभवों के आधार पर लगातार विकसित, पल्लवित हो रहे हैं.भारतीय डाक प्रशासन में सेना डाक सेवा को बेस सर्किल नाम से जाना जाता है.बेस सर्किल की अध्यक्षता मेजर जनरल की रैंक में अपर महानिदेशक ,सेना डाक सेवा द्वारा की जाती है.दुनिया के सबसे ऊंचे रणस्थल सियाचिन से लेकर विदेश तक फैले ये डाक घर सेना के विभिन्न अंगों के लिए ही नहीं ,भारतीय अर्धसैन्य बलों का भी सहारा हैं.12 लाख से अधिक सैनिको और लाखों की संख्या में अर्धसैन्य बलों के बीच ये लगातार समर्पित सेवाऐं प्रदान कर रहे हैं. सेना डाक सेवा थल सेना,भारतीय वायुसेना,असम रायफल्स,केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल,भारत-तिब्बत सीमा पुलिस जैसे संगठनों तथा सीमित आधार पर भारतीय नौसेना को अपनी सेवाऐं प्रदान कर रहा है.संयुक्त राष्ट्र सेना की भारतीय सैन्य टुकडिय़ों को भी सेना डाक सेवा सुविधा प्रदान कर रही है.सैनिक डाक घर रोज जवानों के बीच सात लाख से ज्यादा पत्रों का वितरण तो करते ही हैं ,समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को पहुंच कर देश दुनिया से उनको हमेशा करीब से जोड़े रखते हैं.सेना की यूनिटें जहां जाती हैं,जवानो को डाक सेवा उनकी जगह पर ही प्रदान की जाती है.असैनिक डाक घरों की तरह उनको घर या ठिकाना बदलने पर बार-बार अपना पता बदलने की जरूरत नहीं है.56 एपीओ तथा 99 एपीओ भारतीय सैनिको के लिए डाक का पर्यायवाची बन चुका है.·किसी भी साधन से डाक सैनिको तक पहुंचानी हो,पहुंचायी ही जाती है.भारतीय सेना डाक घरों के बचत बैंक खातों मे १६०० करोड़ रूपए से अधिक की राशिःजमा है.सेना डाक सेवा (आर्मी पोस्टल सर्विस को र) के जवानों को एक जमाने में लिफाफा फौजी के नाम से संबोधित कर उनका उपहास किया जाता था. पर इस सेवा के जवानों ने समय-समय पर यह दिखला दिया िक बहादुरी में भी इनकी कोई मिसाल नहीं है.तमाम जंगों मे इन्होने जो शौर्य और बहादुरी दिखायी,उसी के चलते इस कोर के जवानों को वीर चक्र तथा शौर्य चक्र से लेकर तमाम सम्मान हासिल हुए.आज सेना डाक सेवा कोर के जवान अन्य नियमित सैन्य टुकडिय़ों जैसी ही हैसियत रखते हैं.भारतीय सेना 1778 के पहले तक अपनी डाक व्यवस्था हरकारों के मार्फत ही संचालित करती थी.1778 मे सेना प्रमुख को अपने हरकारों को नियुक्त करने का अधिकार मिला. 1805 में सेना के लिए अलग से पहली बार पोस्टमास्टर की नियुक्ति हुई. पर उस समय सेना पोस्टमास्टर का काम मुख्यतया सिविल डाक घरों के साथ तालमेल बैठाने तक ही सीमित था.इसके बाद से हर सैन्य अभियान में पलटन के साथ पलटनी डाक घर जाते थे.पर फील्ड पोस्ट आफिस का जन्म वास्तव में 1856 में हुआ,जब भारत की सैन्य टुकडिय़ां फारस के युद्द में भाग लेने बंबई से बुशायर गयी थी .तब पहला पूर्ण आत्मनिर्भर डाक घर भेज कर एक व्यवस्थित सेवा की शुरूआत हुई थी.इसके बाद से सेना डाक घर और बेस डाक घर भारत और भारत के बाहर भेजे गए.विदेशी भूमि पर शौर्य प्रदर्शन का भारतीय सेना का गौरवशाली इतिहास रहा है. पर पहली बार डाक · विभाग द्वारा द्वितीय विश्वयुद्द के दौरान उपलव्ध कराए गए कार्मको को सैनिक का दर्जा प्रदान किया गया ।इस तरह से देखें तो पता चलता है िक भारत में सैनिक डाक संगठन बीते दो सदियों से अधिक से सेना की सेवा कर रहा हैं.1856 में खास सेना डाक घरो की शुरूआत के बाद 1860-61 में चीन युद्द के दौरान हांगकाग से बड़ी कठिन हालत में जवानो तक डाक पहुंचायी।भूटान फील्ड फोर्स (1864-66 ) के साथ तो अभियान के दौरान कोई प्रशिक्षित सैन्य डाक स्टाफ तक नहीं था। 1867 में एबीसीनिया में जानेवाली सैनिक टुकड़ी के साथ भी सैनिक डाक घर भेजा गया.इस दौरान कई अभियान में डाक हरकारे और खच्चर गए.माल्टा तथा दूसरे अफगान युद्द में 1882 में सेना डाक की बहुत छोटी टीम ने बड़े कामों को अंजाम दिया. 1896 में सूडान तथा 1903 में सोमालिया में ये डाक घर रहे.1900 -1904 तक चीन और तिब्बत में सैनिक डाक घरों ने सराहनीय सेवाऐं दीं.प्रथम विश्वयुद्द में तो सेना डाक सेवा के कई जवान शहीद हुए.उस दौरान पनडुव्बियों के आतंक के चलते कई जगहों पर डाक सेवाऐं काफी बाधित रही थी. लेकिन द्वितीय विश्वयुद्द तक सेना डाक सेवा को सेना परिवार मे बहुत ठोस जगह नही मिल पायी थी. पहले विश्वयुद्द तक फील्ड पोस्ट आफिस का संचालन भारतीय डाक -तार विभाग ही कर रहा था और लंबे समय तक तदर्थ आधार पर ही काम चला .नियमित सेना डाक सेवा के गठन का मामला लंबे समय तक टाला जाता रहा. 1937 में इस दिशा में ठोस पहल हुई और डाक नियमावली में सेना डाक सेवा को लड़ाकू बल का दर्जा प्रदान किया गया। पर तब भी सेना डाक का प्रशासनिक नियंत्रण महानिदेशक डाक - तार विभाग के अधीन युद्ध शाखा के पास रहा. युद्द शाखा के पास वैसे तो लंबा- चौड़ा नेटवर्क था पर सेना की नियम प्रक्रिया आदि के बारे में यह तंत्र बहुत कम जानकारी रखता था.सेना डाक संचालन में कई व्यावहारिक दिक्कतों को देखते हुए सेना मुख्यालय में क्वार्टर मास्टर जनरल ब्रांच के अधीन मार्च 1941 में एक डाक सेक्शन बनाया गया। इसने साल भर में ही निदेशालय का रूप ले लिया । ले.जनरल जी.एन.नायडू इसके पहले निदेशक बने.दिसंबर 1942 में भारत सरकार ने सेना डाक सेवा समिति का गठन करके सारे तथ्यों की समीक्षा की .समिति ने फरवरी 1943 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसके आलोक में सेना डाक को और व्यवस्थित बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ.बंबई में 1945 में सेना डाक सेवा का रिकार्ड ऑफिस भी बना,पर 1946 में 90 सालों तक विभिन्न सैन्य अभियानों में शामिल रहे सेना के डाक घरों को बंद करने का फैसला भी अचानक कर लिया गया। आजादी के बाद सारे तथ्यों की समीक्षा के बाद यह फैसला हालाँकि रोक दिया गया.पहले सेना डाक सेवा ,सेना सेवा कोर की एक विंग के रूप में कार्य करती थी और इसका नाम इंडियन आर्मी पोस्टल सर्विस था.1947 में और बेहतर तंत्र खड़ा करने का प्रयास हुआ.जम्मू-कशमीर में जब सेना बहुच कठिन मोरचे पर तैनात थी तो जापान से लौटे सेना डाक सेवा के जवानों को वहां तैनात किया गया. तभी से एक स्थाई संगठन बनाने की मुहिम चली.आजादी के बाद सेना डाक सेवा को व्यवस्थित बनाया गया.भारतीय डाक विभाग द्वारा चलायी जा रही सारी सेवाऐं और अतीत में सेना सिग्रल कोर द्वारा दी जा रही सभी सेवाऐं सेना डाक घरों के द्वारा प्रदान की जा रही है. 1969 में अनुसूचित प्रेषण सेवा के तहत भेजी जानेवाली सैनिक डाक को सिग्रल कोर के नियंत्रण से हटा कर सेना सेवा कोर के हवाले किया गया. चीन युद्द तथा 1965 और १९७१ के पािकस्तान के खिलाफ युद्द के दौरान सेना डाक सेवा ने बहुत सराहनीय कार्य किया । भारत सरकार ने 1 मार्च 1972 को सेना डाक सेवा कोर (एपीएस) नाम से इस संगठन को स्वतंत्र दर्जा प्रदान किया . अलग कोर बनने के बाद सेना डाक को बड़ी भूमिका में आने का मौका मिला.यह नियमित सेना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गयी.इसके पहले इस सेवा के जवान अपने कंधे पर सेना सेवा कोर का चिन्ह पहनते थे ,जो सेना डाक सेवा हो गया .सेना डाक सेवा मे 25 फीसदी जवान ही नियमित सेना के होते हैं ,जबकि 75 फीसदी डाक विभाग से प्रतिनियुक्ति पर आते है. बेस पोस्ट आफिस यानि मैदानी डाक घर हर पलटन में चिटठी तार या मनीआर्डर पहुंचाते हैं. संयोग से अरसे से सेना डाक का नेतृत्व कर रहे ब्रिगेडियर डी.एस.विर्क को ही सेना डाक सेना कोर का पहला नायक बनने का भी इतिहास लिखने का अवसर मिला.हालाँकि वह इस पद पर मात्र 10 रोज रहे पर कोर के मौजूदा प्रभावी स्वरूप के पीछे असली दिमाग उनका ही रहा है. ब्रिगेडियर विर्क 13 दिसंबर 1947 से 10 मार्च 1972 तक सेना डाक संगठन के प्रमुख रहे.वह लगातार सरकार के समक्ष इसके स्वतंत्र अस्तित्व के लिए पैरोकारी करते रहे.12 जुलाई 1997 को दिवंगत होने तक हर मौके पर वह सेना डाक संगठन को दिशा और हौंसला देते रहे .10 मार्च 1972 को ब्रिगेडियर विर्क ने ब्रिगेडियर ओ.पी.राघव को अपना दायित्व सौंप कर आराम करना चाहा था,पर 20 जून 1972 को सरकार ने उनको कोर का पहला कर्नल कमांडेंट नियुक्त कर दिया। कोर के भीतर से कर्नल कमांडेंट के नियुक्ति की नीति 1991 में बदल दी गयी और सेना मुख्यालय ने यह फैसला लिया िक क्वार्टर मास्टर जनरल ही सेना डाक सेवा कोर का कर्नल कमांडेट होगा।इसके तहत ले.जनरल शेर अमीर सिंह 1 अक्तूबर 1991 को कोर के कर्नल कमांडेंट बने .सेना डाक सेवा कोर का निदेशक क्वार्टर मास्टर जनरल के अधीन सेना तथा वायुसेना अध्यक्ष का डाक मामलों के सलाहकार की भूमिका में भी होता है.कमांड और कोर मुख्यालयों पर उसके प्रतिनिधि अपने-अपने दायरे में इसी प्रकार की भूमिका निभाते हैं. 1984 से पहले सेना सेवा कोर के निदेशक के रेंक ब्रिगेडियर का था जिसे बढ़ा कर मेजर जनरल कर दिया गया.ब्रिगेडियर विर्क के पहल पर एपीएस एसोशिएसन बनी तथा कई महत्वपूर्ण सेवाऐं शुरू की गयीं.सेवा की गुणवत्ता सुधारने के साथ दिल्ली तथा कोलकाता हवाई अड्डों के करीब दो बेस पोस्ट आफिस की स्थापना,समाचार पत्र और पत्रिकाओं के वितरण की ठोस व्यवस्था,सैनिको के लिए फील्ड तक डाक घर के साथ बचत बैंक और अन्य सुविधाऐं प्रदान करायी गयी.ब्रिगेडियर विर्क ने भारतीय सेना डाकघरों के इतिहास पर न केवल बहुत स्तरीय पुस्तके लिखी,बल्कि सेना में फिलैटली के भी वे शिखर पुरूष माने जा सकते हैं.सेना डाक सेवा कोर को ब्रिगेडियर ओम प्रकाश राघव, मेजर जनरल एस.·के.आनंद, मेजर जनरल एस.पी.चोपड़ा, मेजर जनरल बी.पी.दास, मेजर जनरल के . के .श्रीवास्तव ,मेजर जनरल आर.एस.करीर आदि ने ठोस दिशा प्रदान की .इसी का असर है , एपीएस का काफी मजबूत ढांचा खड़ा हो चुका था.शौर्य के लिए सम्मान-असाधारण सेवाओं और पराक्रम के लिए सेना डाक सेवा कोर के जवानों को अब तक एक वीर चक्र ,एक शौर्य चक्र ,चार अति विशिष्ट सेवा मेडल,6 विशिष्ट सेवा मेडल , 3 मेंशन इन डिस्पैच और 51 से अधिक सेनाध्यक्ष के प्रसंशापत्र मिल चुके हैं। कई अन्य सम्मान भी इसको सराहनीय सेवाओं के बदले हासिल हुए हैं।आजादी के बाद इस कोर के लांस नायक इसका पेरिंबम तथा कर्नल आर.के .बंसल को को पराक्रम म और शौर्य के लिए वीर चक्र तथा शौर्य चक्र से सम्मानित किया जा चुका है. अति विशिष्ट सेवा मेडल से ब्रिगेडियर डी.एस . विर्क (1969) ब्रिगेडियर ओ.पी .राघव(1977 ),मेजर जनरल एस. के .आनंद (1986) , तथा मेजर जनरल बी. पी.दास (1995 ) को भी सम्मानित किया गया.इसी प्रकार विशिष्ट सेवा मेडल तथा अन्य पदको से से भी कई अधिकारी और जवान सम्मानित हो चुके हैं। सेना डाक सेवा कोर का कोरगीत भी बहुत सुंदर है।यह यह गीत कोर के ही वारंट आफिसर एच.एस.परवाना ने लिखा और पहली बार कामपटी में हुए एपीएस दूसरे पुनर्मिलन (4-5 दिसंबर 1980 ) के शुभारंभ के मौके पर गाया गया था.सेना में डाक व्यवस्था की एक गौरवशाली गाथा है .
नोट-विस्तार से सेना डाक सेवा के बारे में जानकारी के लिए पढे -भारतीय डाक :सदियों का सफरनामा-नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, 5 ग्रीन पार्क , नयी दिल्ली, मूल्य 125 रूपए।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

पैदल हरकारे -१८५७ के महान सेनानी

अरविंद कु मार सिंह
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ( 1857-1859) की विफलता में बहुत से कारणों का उल्लेख किया जाता है पर संचार तंत्र पर लोगों की निगाह कम ही जाती ,जिसने उस जमाने में अंग्रेजों को बहुत ताकत दी। संयोग से प्रथम स्वाधीनता संग्राम के कुछ समय पहले ही अंग्रेजों ने भारतीय डाक और तार प्रणाली को व्यवस्थित और राष्ट्रव्यापी रूप प्रदान किया था। उस जमाने का सबसे तेज हथियार इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ यानि तार की लाइने कई महत्वपूर्ण हिस्सों में बिछ चुकी थी। हमारे स्वातंत्र्यवीरों को तार के बारे में बहुत सीमित ज्ञान था. इसी नाते दिल्ली समेत कई जगहों पर तारघरों पर कब्जा कर लेने के बाद भी वे उनका अपने हक में इस्तेमाल नहीं सके । 1857 के महान सेनानियों के पास साधनविहीन और आम तौर पर पैदल हरकारे (मेल रनर्स) ही संचार के सबसे ताकतवर साधन थे। इन दिलेर और राष्ट्रप्रेमी हरकारों की ही मदद से बागी नेताओं में एक मजबूत संचार सेतु स्थापित किया जा सका था। यही नहीं तमाम जगहों पर पैदल हरकारों तथा डाक कर्मचारियों के साथ रियासती डाक व्यवस्था से जुड़े डाfकयों ने ऐतिहासिक बलिदान दिया।भारतीय डाक कर्मचारियों और बागियों के लिए जान हथेली पर लेकर संवाद स्थापित करानेवाले हरकारों की बलिदानी भूमिका को आज भी उचित सम्मान मिलना शेष है। आम तौर पर डाक विभाग से जुड़े सभी कर्मचारियों को इतिहासकार एक ही डंडे से हांकते हैं और मानते हैं fक इस विभाग ने अंग्रेजों की काफी मदद की । बेशक कई जगह डाक गाडिय़ों ने सैन्य संचालन में मदद पहुंचाने का काम fक या और कई जगहों पर डाकघरों की मदद से क्रांतिकारियों के बारे में सूचनाए सेनाधिकारियों तक भेजी गयीं, पर इसका अर्थ यह नहीं fक सब अंग्रेजों के ही पिट्ठू बने थे। जब देश का एक बड़ा हिस्सा आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल हो गया रहा हो तो डाक कर्मी मौन कैसे रह सकते थे। जिस आंदोलन की धारा में व्यापारी, fकसान, मजदूर, पुलिस के जवान और सरकारी कर्मचारी शामिल रहे हों उसमें देश तथा समाज की दशा और दिशा को बारीकी से समझनेवाले डाक कर्मचारी कैसे नही शामिल नहीं हुए होंगे।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दिनो में भारत में संचार साधनों की हालत बहुत दयनीय थी। जो ताकतवर हथियार रेल और तार 1857 में अंग्रेजों के लिए प्राणवायु साबित हुआ,उसकी भी पहुंच सीमित हिस्सों में थी। धीमी रफ्तार से पैदल या घोड़े के भरोसे डाक चलती थी और उस जमाने में अधिकतर इलाको में नदियों पर पुल नहीं थे, सड़को की दशा दयनीय थी और अधिकतर पैदल रास्ते घने जंगलों से होकर गुजरते थे। ये रास्ते जंगली जानवरों तथा डाकुओं के नाते इतने असुरक्षित थे fक बिना कारवां के इस ओर जाना भी बेहद कठिन होता था। ऐसे दौर में एक से दूसरे जगहों पर आना जाना या कोई संदेश भेजना fक तना कठिन रहा होगा,यह बात आज की संचार क्रांति में जी रहे लोग और खास तौर पर नौजवान आसानी से नहीं समझ सक ते हैं। उस जमाने में बैलगाड़ी, नाव, ऊंट,तांगा और घोड़ो से लेकर बंहगी और पालकी जैसे धीमी गति के साधनो से ही संदेशे जाते थे। छोटा सा संदेश भी गंतव्य तक पहुंचने में 15-20 दिन तक समय लगा देता था। उस समय के उपलब्ध ब्यौरे और दस्तावेजों के मुताबिक सूरत से आगरा पहुंचनेवाले कारवां को 35-40 दिन सफर में ही बिताने पड़ते थे। उस जमाने में आम आदमी या तो पैदल या बैलगाडी में ही सफर करता था। अच्छी नस्ल के घोड़े काफी मंहगे और आम आदमी की हैसियत से बाहर थे। अलबत्ता राजस्थान ,गुजरात और सिंध में डाक व सवारी के लिए उस समय व्यापक पैमाने पर ऊंटो का प्रयोग होता था। वहां की स्थानीय स्थिति में और साधन कारगर नहीं थे। यह जरूर उल्लेखनीय बात है fक 1857 से कुछ पहले ही भारत में रेल और तार का आगमन हुआ था । उसी दौरान अंग्रेजों ने अपनी डाक व्यवस्था को भी एक ठोस स्वरूप दिया था। तीनो साधन अंग्रेजों के लिए बहुत मददगार रहे,इसमें कोई संदेह नहीं है। इसी नाते 1860 के बाद अंग्रेजों ने तीनो साधनों के तीव्र विकास की ओर विशेष जोर दिया।
वैसे भी 1857 के पहले अंग्रेजो ने देसी डाक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ कर तहस नहस कर दिया था। 1854 में केंद्रीय डाक व्यवस्था बनाकर डाक घरों के पहले महानिदेशक की नियुक्ति कर राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत तंत्र खड़ा करने की पहल की गयी थी। उसी साल पहली बार भारत में डाक इक ट जारी हुए ,जिसने पत्र भेजने के दूरी की बाधाओं को समाप्त कर दिया। बैरंग पत्रों की शुरूआत उसी समय हुई थी। 1856 में 40 डाक मंडल बना क र डाक व्यवस्था को और भी मजबूत बनाया गया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत में साक्षरता दर महज एक फीसदी होने के नाते पत्राचार सीमित था। उसी प्रकार तार का उपयोग भी आम भारतीय नाम मात्र करते थे। उस समय सभी श्रेणी के पत्रों की सालाना आवाजाही सवा क रोड़ थी। लेकिन उस समय के उपलब्ध दस्तावेज और रिकार्ड बताते है fक वर्ष 1857 और 1858 के दौरान डाक विभाग में रिकार्ड 23 लाख पत्र डेड लेटर आफिस (डीएलओ) वापस लौटे। डेड लेटर आफिस में वापस लौटे पत्रों का संकलन होता था। उस समय इतनी बड़ी मात्रा में पत्रों का वापस लौटने का आंकड़ा fकसी को भी चौंकाने के लिए काफी है। यह सही है fक उस समय आधुनिक पत्र संस्कृति विकसित नहीं हुई थी और बहुत से पत्रों पर ठीक से पते भी नहीं लिखे होते थे । पर 23 लाख पत्र सिर्फ़ इस नाते नहीं वापस आए थे। इन पत्रों का क्रांति ,बगावत और पलायन से संबंध था। डाक विभाग की एक रिपोर्ट बताती है की उस दौरान बगावत में बहुत से लोग या तो मार दिए गए या अपने ठिकानो से पलायन कर गए थे। बात दोनो में कोई रही हो पर हालत की गंभीरता और जमीनी हकीकत दोनो का प्रकट उल्लेख किए बिना नहीं रहती है। ऐसे दौर में जबfक उ।प्र., बिहार,दिल्ली तथा हरियाणा के तमाम इलाको में गांव के गांव तोप लगाक र उड़ाए जा रहे हों और फांसी के फंदों से पेड़ तक झुक गए हों ,सड़के खून से लाल हो गयीं हों तो वापस आए पत्रों का आंकड़ा हकीकत बयान ही करता है।अंग्रेजों के पास सबसे ताकतवर और तेज साधन तार (टेलीग्राम) था। पर बागियों के पास सिर पर कफन बांध कर संदेश लाने और ले जानेवाले हरकारों की कमी नहीं थी। उस जमाने में मुख्य क्रांति केद्रों में हरकारे ही संचार के सबसे बड़े साधन थे। डाक की जीवन रेखा कही जानेवाली जी.टी रोड उस समय काफी लम्बी दूरी तक बागियों के कब्जें में थी। इस सड़क को अपने कब्जे में लेने और रानीगंज, बनारस, इलाहाबाद, आगरा, अलीगढ़ ,मेरठ ,अंबाला तथा लाहौर जैसे प्रमुख शहरों तक सुगम यातायात के लिए अंग्रेजों को बागिओं और खास तौर पर fकसानो और जवानो से एक -एक इंच लडऩा पड़ा। इसी के बाद सड़क की सुरक्षा के लिए विशेष पुलिस तैनात हुई और देर रात तक पहरा शुरू हुआ। यह पहरा क्रांति की आग बुझने के बाद भी काफी समय तक जारी रहा।
काफी बड़े इलाको में फैली 1857 की क्रांति का संचालन उस दौर में fकतना कठिन रहा होगा,जब संचार तंत्र दयनीय अवस्था में था। अंग्रेजों के पास अपना मजबूत खुफिया तंत्र और उन्नत हथियार थे। तमाम ताकतवर राजाओं का समर्थन भी उनके पास था ही। फिर भी कोलकाता से पेशावर तक जो ज्वाला उठी उसके पीछे कोई संगठन और आपसी संवाद तो निश्चय ही हो रहा होगा। 31 मई 1857 को क्रांति की तिथि तय की गयी थी,इसके ठोस साक्ष्य नहीं मिले हैं। फिर भी तमाम ऐसे पत्र जरूर अंग्रेजों के हाथ लगे थे उनसे पता चलता है fक सेना की विभिन्न रेजीमेंटों के बीच बगावत संबंधी पत्राचार code word में हो रहा था। क्रांति के पूर्व प्रमुख नेताओं के दूत या हरकारे मदद के लिए राजाओं और सैनिको के साथ प्रभावशाली लोगों से संवाद क र रहे थे। महान क्रांति नायक नाना साहब के कई दूत चुनिंदा राजाओं के दरबार में विशेष पत्र पहुंचा रहे थे,जब fक फैजाबाद के · मौलवी अहमद उल्लाह शाह उर्फ डंका शाह तथा कई अन्य सन्यासी और फकीर 1857 से पहले उन कई जगहों पर क्रांति की ज्वाला फैलाने में लगे थे,जो जनक्रांति के महान केद्र बने। फकीरों तथा साधुओं ने अथवा अन्य लोगों ने उनके वेष में कई नगरों और सैनिक छावनियों में संदेश और सूचनाएं भेजने मे मदद की । इस तरह देखें तो संवाद संबंधी रणनीति काफी ठोस और सुलझी हुई थी। ले.जनरल ए.इनेस ने लिखा है गुप्त पत्र व्यवहार सबसे पहले मुसलमानो ने fकया। उनके पत्रों में गुप्त लिपियों का प्रयोग होता था। इन पत्रों का सिपाहियों मे व्यापक प्रचार हो गया और काफी पत्र पकड़े भी गए। मूसाबाग (लखनऊ) में पैदल सेना की दो रेजीमेटों ने जब विद्रोह किया तो सैनिको के पास ऐसे पत्र मिले ,जिसमें पैदल रेजीमेंट नंबर 48 को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया गया था। इस तरह बनारस में रेजीमेंट 37 के एक हवलदार तथा बैरकपुर के एक भारतीय अधिकारी का पत्र पकड़ में आया, जिसने रीवा नरेश को लिखा था fक अगर वह अंग्रेजों से युद्द करें तो दो हजार लोग उनका साथ देने के लिए तैयार हैं। पत्रों के आधार पर ही ये नेता मई 1857 में गिरफ्तार भी हुए । इस तथ्य की तरफ संभवत: इतिहासविदों का ध्यान नहीं जाता fक मंगल पांडेय की फांसी और 10 मई 1857 को मेरठ में हुई बगावत से भी पहले 23 जनवरी 1857 को रानीगंज छावनी में रहस्यमय आग लगी थी और इसके बाद 25 जनवरी को ही बैरकपुर का तारघर भी जला डाला गया था। तारघर जलाना एक बड़ा संकेत था। पर मेरठ के बागी सैनिको ने दिल्ली पहुंच कर जब 11 मई 1857 को हिंदुस्तान का बादशाह बहादुर शाह जफर को घोषित कर दिल्ली आजाद करा लिया तो उसके तत्काल बाद ही पैदल और घुड़सवार हरकारों की मदद से जल्दी ही क्रांति की चिंगारी कई हिस्सों में फैलायी गयी। इस क्रांति की व्यापकता खुद यह संकेत देती fक इसके विस्तार के पीछे कितने लोगों का श्रम और बलिदान निहित रहा होगा। जाहिर है यह काम क्रांतिवीरों ने हजारों साधनविहीन गरीब पैदल हरकारों की मदद से हुआ । यही हरकारे ही बागियों की संचार व्यवस्था के आधारस्तंभ थे । गरीबी के बावजूद ये अंग्रेजों के प्रलोभन की चपेट में नही आए और इन्होने अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। दिल्ली पर कब्जे और बहादुर शाह जफर को बादशाह घोषित क रने के बाद जिस तेजी से उत्तर भारत के विभिन्न इलाको में संगठन हुआ,उसमें हरकारों की कम भूमिका नहीं थी। अगर तार तथा अंग्रेजों की भारी भरक म तैयारियों के बाद भी विभिन्न जगहों से बड़ी संख्या में बागी सैनिक दिल्ली पहुंच रहे थे तो जाहिर है कोई तो तार रहा होगा।
मई तथा जून महीने में नसीराबाद, लखनऊ, मथुरा, झांसी ,जालंधर,इलाहाबाद तथा मेरठ से बड़ी संख्या में सैनिक दिल्ली पहुंचे। झज्जर के सैनिक 18 मई को , आगरा तथा मथुरा के सैनिक 12 जून ,रोहतक के सैनिक 14 जून को दिल्ली पहुंचे। इनमें काफी अश्वारोही थे और उनके पास तोपखाना भी था। फिरोजपुर छावनी के बागी सैनिक तोपखाने के साथ 24 जून को दिल्ली पहुंचे ,जबfक बरेली से काफी बड़ी संख्या में सैनिक साजो- सामान के साथ 18 जुलाई को दिल्ली आए। झांसी का दो और जत्था 6 और 25 जुलाई को दिल्ली आया। इसी प्रकार ग्वालियर के सैनिक 2 जून को ,नीमच के सैनिक 31 जुलाई को दिल्ली आए। बड़ी संख्या में बागी रास्ते की लड़ाई में शहीद हो गए। मिश्रर आफिस अंबाला के 28 अगस्त 1857 के पार्लियामेंटरी पेपर्स में ,दिल्ली में प्रधान सेनापति के मीर मुंशी रजब अली खां द्वारा 14 अगस्त 1857 को तैयार व्यौरा मिलता है जिसमें अलग- अलग जगहों से दिल्ली पहुंचने वाले सैनिको की संख्या 4000 अश्वारोही, 12,000 पैदल आंकी गयी है। इनके साथ 30 तोपें भी थीं। 100 अश्वारोही और 3000 पैदल सैनिको को अनुशासनहीन की श्रेणी में रखा गया था। यह संख्या क म या ज्यादा भी हो सक ती है,पर उस जमाने में दिल्ली में विभिन्न जगहों से इतनी बड़ी संख्या में सैनिको दिल्ली पहुंचना साफ करता है fक हरकारों के माध्यम से उनको दिल्ली की घटनाओं के बारे में सारी सूचनाएं मिल गयी थीं। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं fक दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा समाप्त होने के बाद वहां की डाक व्यवस्था काफी खराब थी। दिलचस्प बात यह है fक क्रांतिकरिओं ने दिल्ली में टेलीग्राम दफ्तर को अपने कब्जे में ले लिया था। लेकिन यह टेलीग्राम का दफ्तर उनके लिए किसी काम लायक नहीं था क्योंकि तार का संचालन भारतीय क्रांतिकारिओं में किसी को नहीं आता था। सैनिको को अग्रेजी ज्ञान नहीं था। इस नाते इस तारघर को नष्ट दिया गया। पर दिल्ली बेहतर डाक व्यवस्था तुंरत नहीं हो सकी । इसी नाते देहली उर्दू अखबार ने 24 मई 1857 को और उसके बाद टिप्पणी की और कहा समस्त कामो की अपेक्षा डाक प्रबंध आवश्यक है। कुछ प्रबंध आरंभ हुआ था पर सवारों की नियुक्ति न होने के नाते विफल रहा। दिल्ली की डाक व्यवस्था भले लचर रही हो पर अलग-अलग इलाको से दिल्ली पहुंच रहे हरकारों के नाते देश के तमाम हिस्सों में बहादुर शाह जफर के पत्र तेजी से पहुंच रहे थे। 16 मई 1857 को उन्होने पटियाला, जयपुर, अलवर, जोधपुर, कोटा, बूंदी तथा कई अन्य राजाओं को दिल्ली आने को कहा । बहादुर शाह जफर ने जब जून 1857 में अपना ऐतिहासिक घोषणापत्र जारी किया तो उसमें यह बात खास तौर कही गयी--इस घोषणापत्र की प्रतियां हर स्थान पर प्रसारित की जायें और इस कम को युद्द से कम महत्व का न समझा जाये। घोषणापत्र मुख्य स्थानो पर चिपका दिया जाये जिससे सारे हिंदू और मुसलमान इस विषय में ज्ञान प्राप्त कर तैयार हो जायें। इससे तो यह साफ है ,बादशाह बेहतर डाक तंत्र चाहता था और सेना के लोग भी। इसी नाते 10 जुलाई 1857 को बादशाह कोर्ट के सदस्यों ने उससे निवेदन किया िक 1500 पैदल तथा 500 सवारों को दो तोपों के साथ गांवो में पुलिस थाने तथा डाक का प्रबंधन करने के लिए भेजा जाये जिससे बादशाह के राज्य की स्थापना की विषय में लोगों को ज्ञान प्राप्त हो जाये। 21 अगस्त 1857 को बादशाह ने बागपत के जमींदारो को पत्र लिखने के साथ सोनीपत, पानीपत, बहादुरगढ़ तथा मेवात के गावों के मुख्य सरदारों और जमींदारों को रसद और मालगुजारी के बारे में पत्र लिखा। इन इलाको से लगातार बादशाह को पत्र मिल रहे थे। इस तरह एक ठोस संचार तंत्र बन चुका था।वैसे डाक विभाग की वार्षिक रिपोर्टों में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है,पर तारों के रिकार्डो से यह खुलासा हो ही जाता है िक बहुत से अंग्रेज भक्त देसी राजाओं के डािकयों व हरकारों की मदद से अंग्रेज डाक अधिकारी बागियों की गतिविधियों ,सड़को की स्थिति तथा इलाको का हाल चाल जान रहे थे और उसे अंग्रेज अफसरों तक भेज रहे थे। पर बड़ी संख्या में हरकारे बागिओं की मदद में खड़े थे।
1837 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में पत्रों सरकारी एकाधिकार कर लिया और तमाम इलाको की मजबूत देसी डाक प्रणाली और नामी हरकारों को अपना काम बंद करना पड़ा था। इसके बाद 1854 नेे रही सही कसर पूरी कर दी। अंग्रेज हरकारों की नियुक्ति के समय बहुत सतर्क रहते थे और उनकी कड़ी जांच की जाती थी,पर उन पर विश्वास नहीं किया जाता था। उनसे बहुत अमानवीय व्यवहार होता था। हरकारों को अवकाश पर जाने के लिए एक माह पूर्व सूचना देनी पड़ती थी। ऐसा न करने पर उनको एक माह की जेल और जुर्माना दोनो अदा करना पड़ता था। अंग्रेजों ने 1822 में ही हरकारों की जगह तेज घोड़ो के उपयोग का फैसला किया था पर इसे बदलना पड़ा क्योंिक हरकारों की तुलना में घोड़े धीमी गति से चल रहे थे। कोलकाता -मेरठ के बीच की जो डाक हरकारे 10 दिन में पैदल पहुंचा देते थे वही घोड़े 12 दिन में पहुंचा रहे थे। इसी तरह अंग्रेजों ने अवध जैसे इलाको की बेहतरीन बादशाही डाक समाप्त क र हजारों हरकारों को घर बिठा दिया। ऐसे में 1857 में हरकारों का एक बड़ा वर्ग देसी राजाओं और क्रांतिकारिओं के साथ जुड़ गया। इसी नाते जहां कहीं हरकारे पकड़े गए उनको फांसी पर ही लटकाया गया।
लेकिन जहां मौका मिला अंग्रेजों ने तार की तरह ही डाक का भी काफी उपयोग बगावत दबाने के लिए िकया। इसी नाते कई जगहों पर डाक विभाग भी बागियों का शिकार बना। 1857 में बंबई सर्किल में 10 डाक बंगले और 7 डाक घर जलाए गए। 10 डाक घर को बंद ही कर देना पड़ा। महान सेनानी वीर कुवर सिंह ने सासाराम -बनारस तथा सुरेंद्र साय ने बंबई -कोलकाता डाक लाइन को लंबे समय तक बाधित रखा। 1857 में काफी महत्वपूर्ण शिमला के पोस्टमास्टर एफ. डाल्टन दिल्ली में क्रांतिकरिओं के हाथ पड़ गए तो उनको मौत के घाट उतार दिया गया ।
1857 में क्रांतिकरिओं की मदद के लिए कई स्थानों पर हरकारों की समानांतर डाक सेवा चल रही थी। कई जागीरों के पास तो अपनी डाक व्यवस्था थी, पर बहुत सी जगहों पर महाजनी डाक व्यवस्था भी बागियों की मदद अपने हरकारों के द्वारा चला रही थी इस बात के ठोस प्रमाण मिलते हैं। खास तौर पर अवध में पूर्व हरकारे भी इस मौके पर मैदान में उतर आए थे। अंग्रेजों के खिलाफ जब पूरा अवध सड़क पर आ गया हो तो वे मौन कैसे रह सकते थे। उनके साथ ही हजारों खबरनवीस भी बागियों की मदद कर रहे थे । इसी नाते अंग्रेजी खेमे की बहुत सी महत्वपूर्ण सूचनाएं बागियों तक पहुंच रही थी। अंग्रेजी डाक भी बागियों के निशाने पर थी और बहुत सी जगहों पर गांव वाले डाक छीन लेते थे। बहुत से इलाको में तो लंबे समय तक डाक लाइने चालू नही हो सकी । इन बातों से नाराज अंग्रेजों ने हरकारों और ग्रामीणों किसी को नहीं बख्शा। बागी नेताओं के बहुत से पत्र अंग्रेजों को मिले ,जो बाद में उनके लिए फांसी का फंदा बने। इन पत्रों या उसके जवाब में हरकारों का उल्लेख तथा ब्यौरा भी रहता था। ऐतिहासिक दस्तावेजों में हरकारों को फांसी पर लटकाने की घटना मौजूदा उ.प्र. के जौनपुर जिले में मिलती है। बनारस में रह रहे जगदीशपुर निवासी ईश्वरी प्रसाद महाजन बागियों के लिए एक समानांतर सेवा चला रहे थे। इस सेवा के 8 हरकारे भवानी भीख, मेंहदी, नारायण कुर्मी, बांदी कुर्मी, मकदूम , शीतल ,बुद्दन,अयोध्या, तथा मिधई आदि जलालपुर (जौनपुर) के थानेदार गंगाशरण की पकड़ में आ गए। उनके पास बगावत में शामिल कुछ राजाओं के पत्र मिले । थानेदार ने इन हरकारों को बनारस अंग्रेज अफसरों को सौंप दिया। 13 सितंबर 1857 को थानेदार ने सबसे पहले नोहारी अहीर को पकड़ा , जिससे पता चला लखनऊ के ईश्वरी प्रसाद महाजन डाक सेवा चला रहे थे। इसके बाद कोतवाली जौनपुर निवासी हर दत्त चौबे तथा भैरों चौबे पकड़े गए। इसके बाद और हरकारे पकड़े गए तथा उनके पास दो फारसी में लिखे पत्र मिले । एक पत्र लखनऊ के तारानाथ ने ज्वालानाथ को लिखा था। दूसरे पत्र में लिखनेवाले या पानेवाले का नाम नहीं था,पर उस लंबे पत्र में लिखा था - बनारस अंग्रेजों के कब्जे में है वहीं राजा बनारस अंग्रेजों की गोद में बैठा है। इलाहाबाद की तरह यहां भी उपद्रव होना चाहिए।....इन हरकारों से बनारस में हुई पूछताछ मे कई जगहों पर तैनाती की जानकारी मिली । वे बनारस के महाजन भैरो प्रसाद के आदेश से डाक लाते थे और उसे सही जगह पहुंचाते थे। डाक प्रबंधन संबंधी सारे कार्य भैरो प्रसाद, ईश्वरी प्रसाद तथा जयदयाल देखा करते थे। 16 अक्तूबर 1857 को विशेष आयुक्त जौनपुर,एच.जी.एस्टेल की अदालत ने इन सभी आठ हरकारों को राजद्रोही घोषित करते हुए फांसी की सजा सुना दी। यही नहीं महाजन भैरो प्रसाद को भी गिरफ्तार करके उनको फांसी दे दी गयी। 18 जनवरी 1858 के पत्र संख्या 93 के तहत तहत संयुक्त सचिव ,भारत सचिव ने बाबू भैरो प्रसाद की सारी संपत्तियों और सामानो को जव्त करने का आदेश दे दिया।
रानी लक्ष्मीबाई तथा अन्य क्रांतिकरिओं के पत्र भी हरकारे लंबी दूरी तक पहुंचा रहे थे और बहादुर शाह जफर का फरमान भी इसी तंत्र से तमाम जगहों तक जा रहा था। पर ऐसे पत्र बगावत के बाद बहुत से लोगों के लिए गले की फांस बने। बहादुर शाह जफर को जिन लोगों ने पत्र लिखे थे उनको अंग्रेजों ने फांसी के फंदे पर लटका दिया। चाहे वे बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह हों या फिर झज्जर के नवाब ,इनको फांसी की पृष्ठïभूमि में पत्राचार ही मुख्य आधार बना। जिन बागी नेताओं ने संचार व्यवस्था को प्रभावित किया या ठप करने का प्रयास किया ,वहां अंग्रेजों ने विशेष ध्यान दिया। अमोढ़ा (बस्ती) की महान सेनानी रानी तलाश कुवरि ने अयोध्या से आगे घाघरा के घाटों पर रात दिन पहरेदारी करा कर अंग्रेजों का संचार तंत्र १८५७ से मार्च 1858 तक पूरी तरह ठप कर दिया था। रानी को नियंत्रित करने के लिए बड़ी सेना भेजी गयी और रानी शहीद हुईं। इसी तरह राणा बेनी माधव गंगा तट तथा लखनऊ कानपुर रोड पर अंग्रेजों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने रहे। राजा देवीबख्श सिंह गोंड़ा में लंबे समय तक परेशानी बने। जब अंग्रेज यह घोषित कर रहे थे िक जंग समाप्त हो गयी है तो नेपाल की तराई से बेगम हजरत महल ने 1859 में अवध की जनता से यह अपील की -विधर्मियों (अंग्रेजों ) के आने-जाने पर निगाह रखो,नदियों के सब घाटों पर पहरा रखो,उनके पत्र व्यवहार को बीच में रोक दो। उनकी रसद रोको ,उनकी डाक चौकिओं को तोड़ दो। ..... उनको क हीं शांति से न बैठने दो।
pai

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

भारतीय पोस्टमैन

अरविन्द कुमार सिंह
थानेदार,तिलंगा,चौकीदारसिपाही तहसीलन के करू अमीन गिरदावर आवतलोटत नागिन छातिन पैतुहैं देख के फूलत छातीनयन जुड़ात डाकिया भैयायुग-युग जियो डाकिया भैयापोस्टमैन,चिट्ठीरसा और जाने कितने नाम से डाकिया या पोस्टमेंन जाना जाता है।पर भारतीय समाज में उसकी एक अलग हैसियत और पहचान है.भीड़ में हमेशा उसे अलग से ही पहचाना जा सकता है.अपने इलाके में वह परिवार के सदस्य से कम नहीं माना जाता। इसी नाते डाक प्रणाली में सबसे ज्यादा लोक गीत और साहित्य डाकिया या पोस्टमैन पर लिखे गए हैं ।तमाम गीतों में डाकिया के लंबे जीवन की कामना की गयी है।सरकारी अमले में पोस्टमैन ही ऐसा है जिसकी देहात में खास तौर पर सबसे ज्यादा गुडविल है।बाकी सरकारी कर्मचारी अगर गांव-गिरांव में आते हैं और किसी का नाम अगर सूखा राहत देने के लिए भी बुलाते है तो एक बारगी लोग सहम जाते है,पर डाकिया किसी का नाम बुलाए तो उसके चेहरे पर अपने आप खुशी तैर आती है। भले ही डाकिया के थैले से कोई बुरी खबर क्यों न निकले । भारत ही नहीं दुनिया की करीब सभी डाक प्रणालियों की रीढ़ डाकिया या पोस्टमैन ही माना जाता है।जमीनी स्तर पर पोस्टमैन ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है।भारतीय समाज मे डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है. सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है.यही नहीं एक डाकिया अपने इलाके के समाज और भूगोल की जितनी गहरी समझ रखता है, उतनी किसी और को नहीं होती. पुलिस तथा राजस्व विभाग भी दुर्गम देहात तक यूँ अपनी मौजूदगी रखते हैं.पर इन विभागों के प्रतिनिधि सिपाही ,चौकीदार या पटवारी की विश्वसनीयता और गुडविल कभी भी डाकिया जैसी नहीं बन सकी.सदियों में भारतीय समाज में डाकिया वह घर-घर की खबर रखता है.देहात हो या शहर सभी उसे अपना शुभचिंतक और हितैषी मानते हैं.वह अपने इलाके का मानव कमप्यूटर है.जिसे किसी का पता न मिल रहा हो, किसी बाहर गए हुए आदमी का ठिकाना जानना हो,तो वह डाकिया से बेहतर कोई नहीं बता सक ता। डाकिया केवल पत्र बांटते ही नहीं अशिक्षित गरीबों को उसे बांच कर सुनाते भी हैं.इन चिट्ठियों में बहुत सी बातें होती हैं पर वे किसी की पारिवारिक प्रतिष्ठा को सड़क पर लाकर नही खड़ा करते.अपने इलाके में डाकिया कमोवेश सबको जानता-पहचानता है और हर गली-कूचा संचार क्रांति के बावजूद उसका बेसब्री से इंतजार करता नजर आता है.एक -एक घर से वह इतना करीब से जुड़ा है fक उसके पहुंचने पर सर्वत्र स्वागत ही होता है.हालांिक डा·िया की वर्दी पुलिस जैसी ही खाकी रही है,पर उसने समाज में कभी खौफ नहीं पैदा किया .हाल में डेढ़ सौ साल के इतिहास में पहली बार डाकिए की की वर्दी खाकी से नीली हो गयी है।पर यह वास्तविकता है िक खाकी वर्दी में डाकिए की जो छवि भारतीय जनमानस में बन गयी है,वैसी छवि नीली वर्दी में बनने में शायद समय लगे। यह ऐतिहासिक सच है िक भारत में पोस्टमैन की माली हालत कभी भी बहुत अच्छी नहीं रही.पर इससे उसकी हैसियत और औकात पर कभी फर्क पड़ा.देहात में तो ग्रामीण पोस्टमैनों की माली हालत और भी खराब रही पर उसकी भूमिकाओं के आलोक मे समाज हमेशा उसके साथ खड़ा रहा है. इतने बड़े तंत्र में कुछ अपवाद भी होते हैं और उतार-चढाव के बीच बहुत से बदलाव भी दिखे हैं,पर सामाजिक दायित्वबोध ने खासकर देहाती पोस्टमैन को एक अलग ही जगह पर लाकर खड़ा किया है. वे एक संस्था और परंपरा बन गए हैं। ये डाकिए अंग्रेजी राज के कानून 1898 के पोस्टमैन इनेक्टमेंट एक्ट के तहत नियंत्रित हैं.पर आम आदमी को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है िक उनकी अपने विभाग में क्या हैसियत है या कितना वेतन मिलता है? केंद्रीय कर्मचारियों में सबसे ज्यादा काम का बोझ डाकिए पर है और उसकी तुलना में उनका वेतन सबसे कम है,पर सामाजिक हैसियत और सम्मान ने उनको एक अलग मुकाम पर बिठा दिया है।इसी नाते अपने उत्पादों के प्रचार और प्रसार में अरबों रूपए खर्च करनेवाली कंपनियां अब देहाती इलाको में अपनी जडे जमाने के लिए डाकिए की गुडविल का उपयोग करने का तानाबाना बुन रही है। राष्ट्रीय विधिक साक्षरता मिशन ने गांव-गांव तक अपना संदेश पहुंचाने और लोगों को कानूनी साक्षर बनाने के लिए डाकिए को ही अपना ब्रांड अंबेस्डर बनाने का फैसला किया है.भारत मे खास तौर पर देहाती इलाको में डाकिए किसी देवदूत से कम नहीं माने जाते हैं.वे अरसे से लोगो के सुख दुख में भागीदार रहते रहे हैं और तमाम खुशी के मौके के पहले साक्षी भी बनते रहे हैं.यही नहीं उनमे संवेदनाऐं इतनी ज्यादा रही हैं िक कभी किसी परिवार में प्रियजन की मौत का तार भी उनको देना पड़े तो तार देने से भी पहले वे उस परिवार को संभालने का काम करते रहे हैं.मानव मनोविज्ञान को वे बारीकी से समझते हैं.हमारे यहां अरसे से तार से बहुत सी उपयोगी सूचनाऐं भेजी जाती रही हैं.पर देहाती तार का उपयोग किसी की मौत या गंभीर बीमारी जैसी खबर के लिए शहर में बैठे परिवार के सदस्यों को देने के लिए ही करते रहे हैं.इस नाते देहात में अरसे तक यह अंधविश्वास बना रहा िक तार आने का मतलब ही है किसी की मौत .तमाम परिवारों मे तो तार देखने के साथ ही रोना शुरू हो जाता था,भले ही उस तार में किसी की नौकरी लगने की खबर हो या कोई खुशखबरी हो.पर इस माहौल को बदलने तथा अंधविश्वास और जड़ता को दूर करने में पोस्टमैनों ने बड़ी सराहनीय भूमिका निभायी है। साहित्य,सिनेमा और लोक गीतों में डाकियाअपने सदियों के श्रम और सेवाओं के चलते ही डाकिया या पोस्टमैन भारतीय जनमानस में बहुत ऊंचा स्थान पाने में सफल रहे हैं. लंबे समय तक बच्चों के सबसे लोक प्रिय खिलौनों का हिस्सा डाकिया ही रहे हैं.तमाम पोस्टमैनों को भारतीय कथा-कहानियों,लोक गीतों और फिल्मो मे बहुत सम्मानजनक जगह मिली है।डाकियो की समाज में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका के आलोक में ही तमाम गीत-लोक गीत और फिल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की गुडविल बनाने में उनका सर्वाधिक योगदान माना जाता है।गावों के लोग तो डाकिए की भूमिका की सराहना करते हुए तमाम गीतों में उनके लंबे जीवन की कामना करते हैं। युग युग जियो डाकिया भैया नाम से 1956 में प्रकाशित अनिल मोहन की यह कविता इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- युग-युग जियो डाकिया भैया,सांझ सबेरे इहै मनाइत है..हम गंवई के रहवैयापाग लपेटे,छतरी ताने,काँधे पर चमरौधा झोला,लिए हाथ मा कलम दवाती,मेघदूत पर मानस चोलासावन हरे न सूखे काति,एकै धुन से सदा चलैया....शादी,गमी,मनौती,मेला,बारहमासी रेला पेलापूत कमासुत की गठरी के बल पर,फैला जाल अकेलागांव सहर के बीच तुहीं एक डोर,तुंही मरजाद रखवैयाथानेदार,तिलंगा,चौकी दार,सिपाही तहसीलन केकरु·अमीन गिरदावर आवत,लोटत नागिन छातिन पैतुहैं देख के फूलत छाती,नयन जुड़ात डाकिया भैयायुग-युग जियो डाकिया भैयाचाहे वह रेगिस्तान की तपन हो या बर्फबारी और बाढ़ के बीच में काम कर रहे डाकिए हों या फिर दंगे फसाद के बीच जान हथेली पर रख कर लोगों के बीच खड़े डाकिए ,इन सबने समाज में अपनी एक अलग साख बनायी.लोक गीतों से लेकर स्कूली किताबों तक का हिस्सा बन गए डाकिए ही वह सबसे मजबूत कड़ी है जिसके नाते डाक विभाग (तार विभाग भी) को देश के सबसे विश्वसनीय विभागों में माना गया।उनकी ही गुडविल के नाते लोग आज तमाम विकल्पों के बाद भी गरीब लोग डाक घरों में ही रूपया जमा करना पसंद करते हैं।अपनी लंबी चौडी़ सेवाओं के बदले डाकिया किसी से कुछ नहीं मांगता।
कहानी ,कविता या लोकगीत ही नहीं, सिनेमा ने भी डाकिया की साख को भुनाने का प्रयास किया .कुछ फिल्मों में उनको विलेन की भूमिका में भी रखा गया पर वे बहुत कम हैं.शुरू में तो डाकिए या डाक बाबू की मौजूदगी करीब हर फिल्म मे देखने को मिलती थी,पर धीरे-धीरे उनका स्थान टेलीफोनो ने और अब मोबाइल फोनो ने ले लिया है.कुछ साल पहले एक चीनी फिल्म पोस्टमैन दुनिया भर में चर्चा में रही.इसी तरह पोस्टमैनों को केंद्रित कर अंगे्रजी मे कई फिल्मे बनीं.संचार क्रांति के पहले डाकिए ही असली स्टार रहे और उनकी परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में मानवीय मौजूदगी देखी जाती रही.जासूसी सिनेमा में पोस्ट बाक्स नंबर 999 और पोस्ट बाक्स नंबर 27 बनी.पोस्ट बाक्स नंबर की सुविधा डाक विभाग ने खास उपभोक्ताओं को दी थी.1964 में कन्नड़ फिल्म पोस्टमास्टर में डाकिए को देहात में अहम भूमिका में रखा.हिंदी में डाक घर,गमन ,दुश्मन ,स्वदेश जैसी फिल्मों मे भी डाकिया बहुत अहम भूमिका में रहा.फिल्म स्टार राजेश खन्ना तो अपनी शानदार डाकिए की भूमिका और डाकिया डाक लाया गाने से काफी चर्चा में रहे.हिदीं फिल्मों में डाकिया तमाम मौको पर दिखता रहा है.डाक हरकारा फिल्म में भी डाकिए को बहुत अहम भूमिका में रखा गया।
डाकिया तथा भारतीय डाक तंत्र के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से जानने के लिए लेखक की पुस्तक भारतीय डाक-सदिओं का सफरनामा पढ़ा जा सकता है.पुस्तक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया ,५ ग्रीन पार्क,नयी दिल्ली से मगाई जा सकती है। पेज -४०६ ,कीमत १२५ रु

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

भारतीय डाक पर एक अनिवार्य सन्दर्भ ग्रन्थ

पुस्तक समीक्षा
भारतीय डाक : दुनिया में सबसे विश्वसनीय

देशराज शर्मा (sabhar indian postman)
दुनिया में सबसे उन्नत मानी जानेवाली भारतीय डाक व्यवस्था का संगठित स्वरूप भी 500 साल पुराना है। एकीकृत व्यवस्था के तहत ही भारतीय डाक डेढ़ सदी से ज्यादा लंबा सफर तय कर चुकी है। कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद आज भी डाक घर ही ग्रामीण भारत की धड़कन बने हैं। आजादी के समय भारत में महज 23334 डाक घर थे,पर उनकी संख्या एक लाख 55 हजार पार कर चुकी है। डाक घरों की भूमिकाएं भी समय के साथ बदल रही हैं। इसी नाते भारतीय डाक प्रणाली दुनिया के तमाम विकसित देशों से कहीं अधिक विश्वसनीय और बेहतर बन चुकी है। आजादी मिलने के बाद स्व.रफी अहमद िकदवई के संचार मंत्री काल में भारतीय डाक तंत्र के मजबूत विकास की रूपरेखा बनी और लगातार समर्थन ने इसे बहुत मजबूत बनाया। इसी नाते भारत के दूर देहात में डाक घरों की सुगम पहुंच बन सकी हमारे 89 फीसदी डाक घर देहातों में ही स्थित हैं। इसी तरह सेना डाक घरों का भी अपना विशेष महत्व है क्योंfक इनकी गति दुनिया में सबसे तेज है। भारतीय डाक -सदिओं का सफरनामा पुस्तक में डाक प्रणाली के साथ परिवहन प्रणाली का भी रोचक व्यौरा है। जानेमाने लेखक एवं पत्रकार अरविन्द kumar सिंह ने भारतीय डाक प्रणाली का आकलन मौर्य काल से आधुनिक इंटरनेट युग तक किया गया गया है। नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक तमाम रोचक और अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालती है। करीब डेढ़ दशक तक अनुसंधान के बाद श्री सिंह ने यह पुस्तक लिखी और इसे उन हजारों डाकियों को समर्पित किया है ,जिनके नन्हे पांव सदियों से संचार का सबसे बड़ा साधन रहे हैं।
किसी भी देश के आर्थिक सामाजिक और संस्कृति के विकास में डाक विभाग की भी अपनी अहम भूमिका होती है। यही कारण है िक इसे भी सड़क ,रेल और फोन की तरह आधारभूत ढांचे का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। भारत में 1995 के आसपास मोबाइल के चलते संचार क्रांति का जो नया दौर शुरू हुआ,उसका विस्तार बहुत तेजी से हुआ। उसके बाद खास तौर पर शहरी इलाको मे यह आम मान्यता हो गयी िक अब डाक सेवाओं और विशेषकर पत्रों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। पर वास्तविकता यह है िक संचार क्रांति मुख्य रूप से शहरी इलाको तक ही सीमित है। देश के 70 फीसदी लोग आज भी ग्रामीण इलाको में रहते हैं और यहां आज भी लोगों के लिए आपसी संपर्क का साधन पत्र हैं। तमाम नयी प्रौद्योगिकी के आने के बावजूद डाक ही देहात का सबसे प्रभावी और विश्वसनीय संचार माध्यम बना हुआ है।
जब भारत को आजादी मिली थी तो यहां कुल टेलीफोनों की संख्या 80 हजार थी और 34 सालों में 20.5 लाख टेलीफोन लग पाए थे। पर अब हर माह लाखों नए फोन लग रहे है। फिर भी संचार के नए साधनो के तेजी से विस्तार के बावजूद पत्रों का अपनी जगह महत्व बना हुआ हैं। आज भी हर साल करीब ९०० करोड़ पत्र भारतीय डाक विभाग दरवाजे-दरवाजे तक पहुंचा रहा है। कूरियर और ईमेल से जानेवाले पत्र अलग हैं। 1985 में जब डाक और तार विभाग अलग किया गया था तब सालाना 1198 करोड़ पत्रों की आवाजाही थी। आज भी वैकल्पिक साधनों के विकास के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में पत्रों का आना -जाना भारतीय डाक प्रणाली के महत्व और उसकी सामाजिक को दर्शाने के लिए काफी है।
पर चुनौतियों से जुड़ा दूसरा पहलू भी गौर करनेवाला है। दुनिया भर में डाक घरों की भूमिका में बदलाव आ रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मेल और नयी प्रौद्योगिकी परंपरागत डाक कार्यकलापों का पूरक बन रही है। मोबाइल और स्थिर फोन,यातायात के तेज साधन,इंटरनेट और तमाम माध्यमों से पत्र प्रभावित हुए है। पर दुनिया में पत्रों पर सर्वाधिक प्रभाव टेलीफोनो ने डाला। भारत में इसका प्रभाव खास तौर पर महानगरों में ही देखने को मिल रहा है। पर यह गौर क रने की बात है िक शहरी इलाको में व्यावसायिक डाक लगातार बढ़ रही है। इसका खास वजह यह है िक टेलीमार्केटिंग की तुलना में पत्र व्यवसाय बढ़ाने में अधिक विश्वसनीय तथा मददगार साबित हो रहे हैं।
भारतीय डाक प्रणाली का आजादी के बाद ही असली विस्तार हुआ। इस दौरान हमारी डाक प्रणाली का विस्तार सात गुना से ज्यादा हुआ है। डाक विभाग 38 सेवाऐं प्रदान की जा रही हैं,जिनमें से ज्यादातर घाटे में हैं। फिर भी यह विभाग एक विराट सामाजिक भूमिका निभा रहा है। यही नहीं भारतीय डाक प्रणाली आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और अमेरिका ,चीन,बेल्जियम और ब्रिटेन से भी बेहतर प्रणाली साबित हो चुकी है।
अरविंद कुमार सिंह ने अपनी पुस्तक में मौर्य काल की पुरानी डाक व्यवस्था से लेकर रजवाड़ों की डाक प्रणाली, पैदल, घोड़ा -गाड़ी, नाव और पालकी से लेक र ऊंटों तक का उपयोग कर डाक ढ़ोने की व्यवस्था जैसे तमाम रोचक और प्रामाणिक तथ्य हमें अतीत में ले जाते हैं। 1 अक्तूबर 1854 ·को डाक महानिदेशक के नियंत्रण में डाक विभाग के गठन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ,डाक अधिनियम ,ब्रिटिश डाक प्रणाली के विकास और विस्तार के पीछे के कारण और अन्य तथ्यों को शामिल करके इसे काफी रोचक पुस्तक बना दिया गया है। 1857 और उसके बाद के आजादी के आंदोलनो में डाक क र्मचारियों की ऐतिहासिक भूमिका को भी इस पुस्तक के एक खंड में विशेष तौर पर दर्शाया गया है। डाक कर्मचारी भी आजादी के आंदोलन में अग्रणी भूमिका में थे और स्वतंत्रता सेनानियों के संदेशों के आदान प्रदान में भी कई ने बहुत जोखिम लिया। मगर दुर्भाग्य से इस तथ्य की अनदेखी सभी ने की ।
डाक विभाग ने केवल पत्रों को ही नहीं पहुंचाया। मलेरिया नियंत्रण तथा प्लेग की महामारी रोकने मे भी डाक विभाग की ऐतिहासिक भूमिका रही है। ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह के दौरान देहात तक नमक पहुंचाने में डाक विभाग की भूमिका काफी दिलचस्प तरीके से दर्शायी गयी है। शुरू से ही भारतीय डाक बहुआयामी भूमिका में रहा है तथा बहुत कम लोग जानते हैं िक डाक बंगलों, सरायों तथा सड़को के रख रखाव का काम लंबे समय तक डाक विभाग ही करता था। इन पर लंबे समय तक डाक विभाग का ही नियंत्रण था। डाक घरों से पहले कोई भी मुसाफिर डाक ले जानेवाली गाड़ी,पालकी या घोड़ा गाड़ी आदि में अग्रिम सूचना देकर अपनी जगह बुक करा सकता था । इसी तरह रास्ते में पडऩेवाली डाक चौ·िकयों में (जो बाद में डा· बंगला कहलायीं) वह रात्रि विश्राम भी कर सकता था। यानि यह विभाग यात्राओं में भी सहायक बनता था। पुस्तक में भारतीय डाक प्रणाली के प्राण पोस्टमैन यानि डाक किए पर बहुत ही रोचक अध्याय है। डाकिया की भूमिका भले ही समय के साथ बदलती रही हो पर उसकी प्रतिष्ठा तथा समाज में अलग हैसियत बरकरार है। इसी नाते वे भारतीय जनमानस में रच- बस गए हैं। डाकियों पर तमाम गीत-लोक गीत और फिल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की जो गुडविल है,उसमें डाकियों का ही सबसे बड़ा योगदान है। आज भी वे साइकिल पर या पैदल सफर क रते हैं। एक जमाने मे तो वे खतरनाक जंगली रास्तों से गुजरते थे और अपने जीवन की आहूति भी देते थे। कई बार डाकियों या हरकारों को कर्तव्यपालन के दौरान शेर या अन्य जंगली जानवरों ने खा लिया, तमाम खतरनाक जहरीले सांपों की चपेट में आकर मर गए। कई प्राकृतिक आपदाओं और दुर्गम भौगोलिक क्षेत्रों में शिकार बने तो तमाम चोरों और डाकुओं का मुकाबला करते हुए लोक कथाओं का हिस्सा बन गए।
पुस्तक में पोस्टकार्ड ,मनीआर्र्डर, स्पीड पोस्ट सेवा ,डाक जीवन बीमा जैसी लोक प्रिय सेवाओं पर विशेष अध्याय हैं। इसके साथ ही डाक घर बचत बैक की बेहद अहम भूमिका पर भी एक खास खंड है। डाक घर बचत बैंक भारत का सबसे पुराना,भरोसेमंद और सबसे बड़ा बैंक है। इसी तरह पुस्तक में डाक टिकटो की प्रेरक ,शिक्षाप्रद और मनोहारी दुनिया पर भी विस्तार से रोशनी डाली गयी है। विदेशी डाक तथा दुनिया के साथ भारतीय डाक तंत्र के रिश्तो पर भी अलग से रोशनी डाली गयी है। इसी तरह भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए डाक विभाग द्वारा शुरू की गयी नयी सेवाओं,आधुनिकीरण के प्रयास,डाक विभाग को नयी दिशा देने की कोशिश समेत सभी प्रमुख पहलुओं को इस पुस्तक में शामिल कर काफी उपयोगी बना दिया गया है।
भारतीय डाक विभाग ने खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाको में साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद भी पहुंचायी है। रेडियो लाइसेंस प्रणाली डाक विभाग की मदद से ही लागू हुई थी और लंबे समय तक रेडियो को राजस्व दिलाने का यही प्रमुख स्त्रोत रहा । इसी तरह रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। एक अरसे से मुद्रित पुस्तको और समाचार पत्रों को दुर्गम देहाती इलाको तक पहुंचा कर भारतीय डाक ने ग्रामीण विकास में बहुत योगदान दिया । वीपीपी (वैल्यू पेयेबल सिस्टम) से लोगों में किताब मंगाने और पढऩे की आदत विकसित हुई। गांव के लाखों अनपढ़ लोगों को पत्रों और पोस्टमैन ने साक्षर बनने की प्रेरणी दी । तमाम आपदाओं के मौके पर प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष और मुख्यमंत्री राहत कोषों को भेजे जानेवाले मनीआर्डर और पत्रों को बिना भुगतान के भेजने से लेकर तमाम ऐतिहासिक सेवाऐ डाकघरों ने प्रदान की हैं।
इस पुस्तक में डाक प्रणाली के विस्तृत इतिहास के साथ जिला डाक और राजाओं महाराजाओं की डाक व्यवस्था, आधुनिक डाक घरों, देहाती डाक खानो, पोस्टमैन, पोस्टकार्ड ,लेटरबाक्स आदि पर अलग से खंड हैं। डाक प्रणाली के विकास में परिवहन के साधनों के विकास का भी अपना महत्व रहा है। इस नाते भारतीय हरकारो , कबूतरों, हाथी -घोड़ा तथा पालकी , डाक बंगलों,रेलवे डाक सेवा, हवाई डाक सेवा पर भी अलग से खंड हैं। इसी के साथ भारतीय डाक टिकटों की मनोहारी दुनिया, पािकस्तान पोस्ट, विदेशी डाक प्रबंधन, डाक जीवन बीमा, करोड़ो पत्रों का प्रबंधन,पत्रों की अनूठी दुनिया, रेडियो लाइसेंस, मीडिया के विकास में डाक का योगदान,डेड लेटर आफिस के कार्यकरण पर भी पुस्तक में काफी रोशनी डाली गयी है।
पुस्तक में एक रोचक अध्याय उन डाक कर्मचारियों पर है जिन्होने समाज में लेखन ,कला या अन्य कार्यों से अपनी खास जगह बनायी। कम ही लोग जानते हैं िक नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण,मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन,राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी ,दीनबंधु मित्र, मशहूर डोगरी लेखक , शिवनाथ से लेकर कृष्णविहारी नूर जैसी सैकड़ो हस्तियां डाक विभाग के आंगन में ही पुष्पित पल्लवित हुईं। ये सभी डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं। संचार क्रांति की चुनौतियों से मुकाबले के लिए डाक विभाग की तैयारी भी अलग से चल रही है। इसी के तहत व्यवसाय विकास निदेशालय के कार्यकरण , स्पीड पोस्ट तथा अन्य अत्याधुनिक उत्पादों का विवरण आदि पर भी पुस्तक विशेष गौर करती है।
पुस्तक में भारतीय सेना डाक सेवा पर भी काफी रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। टेलीफोन, मोबाइल या ईमेल सैनिको को अपने प्रियजनो के हाथ से लिखी पाती जैसा सुख- संतोष दे ही नहीं सकते । घर-परिवार से आया पत्र जवान को जो संबल देता है, वह काम कोई और नहीं कर सकता। माहौल कैसा भी हो,सैनिको को तो मोरचे पर ही तैनात रहना पड़ता है,ऐसे में पत्र उसका मनोबल बनाए रखने में सबसे ज्यादा मददगार होते हैं। इसी नाते सेना के डाकघरों का बहुत महत्व है। करीब सारे महत्वपूर्ण पक्षों और तथ्यों को समेट कर भारतीय डाक प्रणाली पर यह पुस्तक वास्तव में एक संदर्भ ग्रंथ बन गयी है। संचार और सूचना मामले में दिलचस्पी रखनेवालो और सभी प्रबुद्ध लोगों को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए .

भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा लेखक -अरविंद के . सिंह , प्रकाशक -नेशनल बुक ट्रस्ट ,इंडिया ए-5 ग्रीन पार्क ,नयी दिल्ली.मूल्य-125 रूपए,पेज -416
आज भी कायम है चिट्ठियों का जादू


संचार क्रांति के इस दौर में खास तौर पर महानगरों में ऐसी आम धारणा बनती जा रही है कि अब चिट्ठियों का कोई महत्व नहीं रहा। उनको मोबाइल और स्थिर फोनों,यातायात के तेज साधनो,इंटरनेट और तमाम अन्य माध्यमो ने बुरी तरह प्रभावित किया है। पर इतने सारे बदलाव के बाद भी चिट्ठियों का जादू खास तौर पर देहाती इलाकों में कायम है और डाकखानो के द्वारा रोज भारत में साढ़े चार करोड़ चिट्ठियां भेजी जा रही हैं। भारतीय सैनिकों के बीच रोज सात लाख से अधिक चिट्ठियां बांटी जा रही हैंण और आज भी देश के तमाम दुर्गम गावों में डाकिए का उसी बेसब्री से इंतजार किया जाता है जैसा दशको पहले किया जाता था। कूरियर कंपनियों का भी इधर तेजी से शहरों में विस्तार हुआ है,पर उनकी ओर से भेजे जानेवाले पत्रों का कोई विश्वसनीय आंकड़ा नहीं है। यह सही है कि चिट्ठियों पर फोनो ने सबसे यादा असर डाला है पर उनका जादू आज भी बरकरार है।

वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक हरिभूमि के स्थानीय संपादक अरविंद कुमार सिंह की पुस्तक भारतीय डाक के एक खंड चिट्ठियों की अनूठी दुनिया को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने आठवीं कक्षा की हिंदी विषय की नयी पाठयपुस्तक वसंत भाग 3 में शामिल किया है। भारतीय डाक तंत्र पर काफी लंबे अनुसंधान के बाद लिखी गयी श्री सिंह की पुस्तक का प्रकाशन नेशनल बुक ट्स्ट द्वारा हिंदी के अलावा अंग्रेजी तथा कई अन्य भारतीय भाषाओं में किया जा रहा है। पुस्तक में संचार क्रांति की चुनौतियों समेत सभी महत्वपूर्ण पक्षों को उठाया गया है और खास तौर पर ग्रामीण डाकघरों की उपादेयता को काफी महत्वपूर्ण माना गया है।

उनके मुताबिक संचार क्रांति के क्षेत्र में भी शहर और देहात के बीच में भारी विषमता गहरा रही है। देश में हर माह 70 लाख से एक करोड़ के बीच में फोन लग रहे हैं फिर भी देहाती इलाकों की तस्वीर बहुत धुंधली है। देहाती फोनो का जिम्मा आज भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीएसएनएल ने ही संभाला है और निजी कंपनियां इन इलाकों में जाने से कतरा रही हैं। भले ही 28 करोड़ से अधिक फोनो के साथ भारत का दूरसंचार नेटवर्र्क दुनिया का तीसरा और एशिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्र्क बन गया है। पर दहातीं दूरसंचार घनत्व अभी 9 फीसदी भी नहीं हो पायाहै। अगर ग्यारहवीं योजना के अंत तक की गयी परिकल्पना के अनुसार ग्रामीण दूरसंचार घनत्व बीस करोड़ फोनो के साथ 25 फीसदी हो जाता है तो भी भारत में देहात के 100 में 75 लोगों के पास फोन नहीं होंगे।

लेखक श्री सिंह मानते हैं कि पत्रों की धरोहर को बचाना बहुत जरूरी है । पत्र जैसा संतोष फोन,ईमेल या एसएमएस संदेश नहीं दे सकते हैं। पत्र रिश्तों का एक नया सिलसिला शुरू करते हैं और राजनीति,साहित्य तथा कला क्षेत्र में तमाम विवाद और नयी घटनाओं की जड़ भी पत्र ही होते हैं.दुनिया का तमाम साहित्य पत्रों पर केंद्रित है और मानव सभ्यता के विकास में इन पत्रों ने अनूठी भूमिका निभायी है। संचार क्रांति के बाद भी पत्रों की विश्वसनीयता को ध्यान में रखते हुए ही तमाम कंपनियों ने व्यापारिक डाक को ही सर्वाधिक महत्व देना शुरू किया है। इसी नाते व्यापारिक डाक की मात्रा लगातार बढ़ रही है।

दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व के कालखंड का सुमेर का माना जाता है। मिट्टी की पटरी पर यह पत्र लिखा गया था। मनुष्य की विकास यात्रा के साथ पत्रों का सिलसिला भी शुरू हुआ और आदिवासी कबीलों ने संकेतो से संदेश की परंपरा शुरू की। लिपि के आविष्कार के बाद पत्थरों से लेकर पत्ते पत्रों को भेजने का साधन बने। लेखन साधनो तथा डाक प्रणाली के व्यवस्थित विकास के बाद पत्रों को पंख लगे । अगर तलाश करें तो आपको ऐसा कोई नहीं मिलेगा जिसने कभी किसी को पत्र न लिखा या न लिखाया हो या पत्रों का बेसब्री से जिसने इंतजार न किया हो। भारत में सीमाओं और दुर्गम इलाकों में तैनात हमारे सैनिक तो पत्रों का बहुत आतुरता से इंतजार करते हैं। संचार के और साधन उनको पत्रों सा संतोष नहीं दे पाते हैं। एक दौर वह भी था जब लोग पत्रों का महीनो इंतजार करते थे.पर अब वह बात नहीं।
लेखक श्री सिंह के मुताबिक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू सभी तरह के पत्रों का हमेशा महत्व देते रहे हैं और पत्रों का जवाब देने में उनका कोई जोड़ नहीं था। गांधीजी के पास दुनिया भर से तमाम पत्र केवल महात्मा गांधी-इंडिया लिख कर पहुंच जाया करते थे। वे देश के जिस कोने में होते थे, पत्र वहां पहुंच जाते थे। गांधीजी के पास बड़ी संख्या में पत्र पहुंचते थे पर हाथ के हाथ वे इसका जवाब भी लिख देते थे। अपने हाथों से ही ज्यादातर पत्रों का जवाब देना उनकी आदत थी। कई बार जब लिखते- लिखते उनका दाहिना हाथ दर्द करने लगता था तो वे बाऐं हाथ से लिखने में जुट जाते थे। महात्मा गांधी ही नहीं आंदोलन के तमाम नायकों के पत्र आपको गांव-गांव में लोग सहेजे मिल जाते हैं। पश्चिमी उ.प्र.में आपको कई इलाको में लोग चौ.चरण सिंह तथा बाबू बनारसी दास जैसे नेताओं के पत्र दिखा कर गर्व महसूस करते हैं.उन पत्रों को वे किसी प्रशस्तिपत्र से कम नही मानते हैं और तमाम लोगों ने तो उन पत्रों को फ्रेम करा कर रख लिए हैं।

पत्रों के आधार पर ही तमाम भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं और राजनेताओं के पत्रों ने विवादों की नयी विरासत भी लिखी। पत्र व्यवहार की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। माध्यम डाकिया रहा हो या हंस ,हरकारा रहा हो या फिर कबूतर पर पत्र लगातार पंख लगाकर उड़ते रहे हैं। नल -दमयती के बीच पत्राचार हंस के माध्यम से होता था तो रूक्मिणी का पत्र श्रीकृष्ण को विपृ के माध्यम से मिलता था। मार्क्स और एंजिल्स के बीच ऐतिहासिक मित्रता का सूत्र पत्र ही थे। इसी तरह रवींद्र नाथ टैगोर ने दीन बंधु एंड्रूज को जो पत्र लिखा था वह लेटर टू ए फ्र ेंड नाम से एक किताब का आकार लेने में सफल रही,जबकि लियो टालस्टाय द्वारा रोमां रोला को लिखे गए पत्रों ने उनकी जीवनधारा ही बदल दी। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के आंदोलन के दौरान जेल में रहते अपनी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी या अन्य को जो पत्र लिखे वे वे स्वयं में महान रचना का रूप ले चुके हैं। इसी तरह उर्दू के मशहूर शायर गालिब अपने मित्रों को खूब पत्र लिखते थे और उन पत्रों के विषय भी कई बार पत्र ही होते थे। भारत में तमाम लेखकों और कवियों ने पत्रों की महिमा पर सहित्य लिखा है।

पत्रों के संदर्भ के साथ यह देखना भी जरूरी है कि दुनिया भर में डाकघरों की भूमिका में बदलाव आ रहे हैं। आजादी के बाद भारतीय डाक नेटवर्क का विस्तार सात गुना से ज्यादा हुआ है। भारतीय डाक प्रणाली आज दुनिया की सबसे विश्वसनीय और अमेरिका,चीन,बेल्जियम और ब्रिटेन से भी बेहतर प्रणाली साबित हो चुकी है। भारतीय डाक तंत्र ने नीति निर्माताओं की तमाम उपेक्षा के बाद भी खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाकों में पत्र भेजने के साथ साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद की पहुंचायी है। रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। मनीआर्डर, डाक जीवन बीमा तथा डाकघर बचत बैंक खुद में बड़ी संस्था का रूप ले चुके हैं। यही नहीं कम ही लोग जानते हैं कि नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण,मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन ,राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी से लेकर कृष्णविहारी नूर डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं.
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अरविंद की किताब के पाठ 8वीं के बच्चे पढ़ेंगे

Friday, 04 July 2008 10:41
दैनिक हरिभूमि, दिल्ली के स्थानीय संपादक अरविंद कुमार सिंह द्वारा लिखित और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित किताब भारतीय डाक के एक खंड चिट्ठियों की अनूठी दुनिया को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने आठवीं क्लास की हिंदी टेक्स्ट बुक वसंत-3 में शामिल किया है। भारतीय डाक पर अरविंद कुमार सिंह द्वारा लंबे शोध के बाद लिखी गई किताब को अब एनबीटी द्वारा अंग्रेजी समेत कई भाषाओं में अनूदित कर प्रकाशित किया जा रहा है।
किताब में संचार के कई पक्षों को समेटा गया है और भारतीय डाक को ग्रामीण इलाकों के लिए जबरदस्त उपयोगिता के बारे में बतलाया गया है। अरविंद कुमार सिंह की किताब में कई रोचक और संग्रहणीय तथ्य हैं, उदाहरण के तौर पर कुछ इस प्रकार हैं.....
भारतीय डाकखानों द्वारा रोज साढ़े चार करोड़ चिट्ठियां भेजी जा रही हैं।
भारतीय सैनिकों के बीच रोज सात लाख से अधिक चिट्ठियां बांटी जाती है।
दुनिया का सबसे पुराना पत्र 2009 ईसा पूर्व सुमेर कालखंड का माना जाता है। यह पत्र मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था।
हिंदी भाषा में लिखी गई इस किताब और किताब के एक अंश को आठवीं क्लास की किताब में शामिल किए जाने की गौरवाशाली उपलब्धि पर भड़ास4मीडिया की तरफ से वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह को ढेर सारी बधाइयां।