मंगलवार, 19 अगस्त 2008

भारतीय पोस्टमैन

अरविन्द कुमार सिंह
थानेदार,तिलंगा,चौकीदारसिपाही तहसीलन के करू अमीन गिरदावर आवतलोटत नागिन छातिन पैतुहैं देख के फूलत छातीनयन जुड़ात डाकिया भैयायुग-युग जियो डाकिया भैयापोस्टमैन,चिट्ठीरसा और जाने कितने नाम से डाकिया या पोस्टमेंन जाना जाता है।पर भारतीय समाज में उसकी एक अलग हैसियत और पहचान है.भीड़ में हमेशा उसे अलग से ही पहचाना जा सकता है.अपने इलाके में वह परिवार के सदस्य से कम नहीं माना जाता। इसी नाते डाक प्रणाली में सबसे ज्यादा लोक गीत और साहित्य डाकिया या पोस्टमैन पर लिखे गए हैं ।तमाम गीतों में डाकिया के लंबे जीवन की कामना की गयी है।सरकारी अमले में पोस्टमैन ही ऐसा है जिसकी देहात में खास तौर पर सबसे ज्यादा गुडविल है।बाकी सरकारी कर्मचारी अगर गांव-गिरांव में आते हैं और किसी का नाम अगर सूखा राहत देने के लिए भी बुलाते है तो एक बारगी लोग सहम जाते है,पर डाकिया किसी का नाम बुलाए तो उसके चेहरे पर अपने आप खुशी तैर आती है। भले ही डाकिया के थैले से कोई बुरी खबर क्यों न निकले । भारत ही नहीं दुनिया की करीब सभी डाक प्रणालियों की रीढ़ डाकिया या पोस्टमैन ही माना जाता है।जमीनी स्तर पर पोस्टमैन ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है।भारतीय समाज मे डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है. सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है.यही नहीं एक डाकिया अपने इलाके के समाज और भूगोल की जितनी गहरी समझ रखता है, उतनी किसी और को नहीं होती. पुलिस तथा राजस्व विभाग भी दुर्गम देहात तक यूँ अपनी मौजूदगी रखते हैं.पर इन विभागों के प्रतिनिधि सिपाही ,चौकीदार या पटवारी की विश्वसनीयता और गुडविल कभी भी डाकिया जैसी नहीं बन सकी.सदियों में भारतीय समाज में डाकिया वह घर-घर की खबर रखता है.देहात हो या शहर सभी उसे अपना शुभचिंतक और हितैषी मानते हैं.वह अपने इलाके का मानव कमप्यूटर है.जिसे किसी का पता न मिल रहा हो, किसी बाहर गए हुए आदमी का ठिकाना जानना हो,तो वह डाकिया से बेहतर कोई नहीं बता सक ता। डाकिया केवल पत्र बांटते ही नहीं अशिक्षित गरीबों को उसे बांच कर सुनाते भी हैं.इन चिट्ठियों में बहुत सी बातें होती हैं पर वे किसी की पारिवारिक प्रतिष्ठा को सड़क पर लाकर नही खड़ा करते.अपने इलाके में डाकिया कमोवेश सबको जानता-पहचानता है और हर गली-कूचा संचार क्रांति के बावजूद उसका बेसब्री से इंतजार करता नजर आता है.एक -एक घर से वह इतना करीब से जुड़ा है fक उसके पहुंचने पर सर्वत्र स्वागत ही होता है.हालांिक डा·िया की वर्दी पुलिस जैसी ही खाकी रही है,पर उसने समाज में कभी खौफ नहीं पैदा किया .हाल में डेढ़ सौ साल के इतिहास में पहली बार डाकिए की की वर्दी खाकी से नीली हो गयी है।पर यह वास्तविकता है िक खाकी वर्दी में डाकिए की जो छवि भारतीय जनमानस में बन गयी है,वैसी छवि नीली वर्दी में बनने में शायद समय लगे। यह ऐतिहासिक सच है िक भारत में पोस्टमैन की माली हालत कभी भी बहुत अच्छी नहीं रही.पर इससे उसकी हैसियत और औकात पर कभी फर्क पड़ा.देहात में तो ग्रामीण पोस्टमैनों की माली हालत और भी खराब रही पर उसकी भूमिकाओं के आलोक मे समाज हमेशा उसके साथ खड़ा रहा है. इतने बड़े तंत्र में कुछ अपवाद भी होते हैं और उतार-चढाव के बीच बहुत से बदलाव भी दिखे हैं,पर सामाजिक दायित्वबोध ने खासकर देहाती पोस्टमैन को एक अलग ही जगह पर लाकर खड़ा किया है. वे एक संस्था और परंपरा बन गए हैं। ये डाकिए अंग्रेजी राज के कानून 1898 के पोस्टमैन इनेक्टमेंट एक्ट के तहत नियंत्रित हैं.पर आम आदमी को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है िक उनकी अपने विभाग में क्या हैसियत है या कितना वेतन मिलता है? केंद्रीय कर्मचारियों में सबसे ज्यादा काम का बोझ डाकिए पर है और उसकी तुलना में उनका वेतन सबसे कम है,पर सामाजिक हैसियत और सम्मान ने उनको एक अलग मुकाम पर बिठा दिया है।इसी नाते अपने उत्पादों के प्रचार और प्रसार में अरबों रूपए खर्च करनेवाली कंपनियां अब देहाती इलाको में अपनी जडे जमाने के लिए डाकिए की गुडविल का उपयोग करने का तानाबाना बुन रही है। राष्ट्रीय विधिक साक्षरता मिशन ने गांव-गांव तक अपना संदेश पहुंचाने और लोगों को कानूनी साक्षर बनाने के लिए डाकिए को ही अपना ब्रांड अंबेस्डर बनाने का फैसला किया है.भारत मे खास तौर पर देहाती इलाको में डाकिए किसी देवदूत से कम नहीं माने जाते हैं.वे अरसे से लोगो के सुख दुख में भागीदार रहते रहे हैं और तमाम खुशी के मौके के पहले साक्षी भी बनते रहे हैं.यही नहीं उनमे संवेदनाऐं इतनी ज्यादा रही हैं िक कभी किसी परिवार में प्रियजन की मौत का तार भी उनको देना पड़े तो तार देने से भी पहले वे उस परिवार को संभालने का काम करते रहे हैं.मानव मनोविज्ञान को वे बारीकी से समझते हैं.हमारे यहां अरसे से तार से बहुत सी उपयोगी सूचनाऐं भेजी जाती रही हैं.पर देहाती तार का उपयोग किसी की मौत या गंभीर बीमारी जैसी खबर के लिए शहर में बैठे परिवार के सदस्यों को देने के लिए ही करते रहे हैं.इस नाते देहात में अरसे तक यह अंधविश्वास बना रहा िक तार आने का मतलब ही है किसी की मौत .तमाम परिवारों मे तो तार देखने के साथ ही रोना शुरू हो जाता था,भले ही उस तार में किसी की नौकरी लगने की खबर हो या कोई खुशखबरी हो.पर इस माहौल को बदलने तथा अंधविश्वास और जड़ता को दूर करने में पोस्टमैनों ने बड़ी सराहनीय भूमिका निभायी है। साहित्य,सिनेमा और लोक गीतों में डाकियाअपने सदियों के श्रम और सेवाओं के चलते ही डाकिया या पोस्टमैन भारतीय जनमानस में बहुत ऊंचा स्थान पाने में सफल रहे हैं. लंबे समय तक बच्चों के सबसे लोक प्रिय खिलौनों का हिस्सा डाकिया ही रहे हैं.तमाम पोस्टमैनों को भारतीय कथा-कहानियों,लोक गीतों और फिल्मो मे बहुत सम्मानजनक जगह मिली है।डाकियो की समाज में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका के आलोक में ही तमाम गीत-लोक गीत और फिल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की गुडविल बनाने में उनका सर्वाधिक योगदान माना जाता है।गावों के लोग तो डाकिए की भूमिका की सराहना करते हुए तमाम गीतों में उनके लंबे जीवन की कामना करते हैं। युग युग जियो डाकिया भैया नाम से 1956 में प्रकाशित अनिल मोहन की यह कविता इस संदर्भ में उल्लेखनीय है- युग-युग जियो डाकिया भैया,सांझ सबेरे इहै मनाइत है..हम गंवई के रहवैयापाग लपेटे,छतरी ताने,काँधे पर चमरौधा झोला,लिए हाथ मा कलम दवाती,मेघदूत पर मानस चोलासावन हरे न सूखे काति,एकै धुन से सदा चलैया....शादी,गमी,मनौती,मेला,बारहमासी रेला पेलापूत कमासुत की गठरी के बल पर,फैला जाल अकेलागांव सहर के बीच तुहीं एक डोर,तुंही मरजाद रखवैयाथानेदार,तिलंगा,चौकी दार,सिपाही तहसीलन केकरु·अमीन गिरदावर आवत,लोटत नागिन छातिन पैतुहैं देख के फूलत छाती,नयन जुड़ात डाकिया भैयायुग-युग जियो डाकिया भैयाचाहे वह रेगिस्तान की तपन हो या बर्फबारी और बाढ़ के बीच में काम कर रहे डाकिए हों या फिर दंगे फसाद के बीच जान हथेली पर रख कर लोगों के बीच खड़े डाकिए ,इन सबने समाज में अपनी एक अलग साख बनायी.लोक गीतों से लेकर स्कूली किताबों तक का हिस्सा बन गए डाकिए ही वह सबसे मजबूत कड़ी है जिसके नाते डाक विभाग (तार विभाग भी) को देश के सबसे विश्वसनीय विभागों में माना गया।उनकी ही गुडविल के नाते लोग आज तमाम विकल्पों के बाद भी गरीब लोग डाक घरों में ही रूपया जमा करना पसंद करते हैं।अपनी लंबी चौडी़ सेवाओं के बदले डाकिया किसी से कुछ नहीं मांगता।
कहानी ,कविता या लोकगीत ही नहीं, सिनेमा ने भी डाकिया की साख को भुनाने का प्रयास किया .कुछ फिल्मों में उनको विलेन की भूमिका में भी रखा गया पर वे बहुत कम हैं.शुरू में तो डाकिए या डाक बाबू की मौजूदगी करीब हर फिल्म मे देखने को मिलती थी,पर धीरे-धीरे उनका स्थान टेलीफोनो ने और अब मोबाइल फोनो ने ले लिया है.कुछ साल पहले एक चीनी फिल्म पोस्टमैन दुनिया भर में चर्चा में रही.इसी तरह पोस्टमैनों को केंद्रित कर अंगे्रजी मे कई फिल्मे बनीं.संचार क्रांति के पहले डाकिए ही असली स्टार रहे और उनकी परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में मानवीय मौजूदगी देखी जाती रही.जासूसी सिनेमा में पोस्ट बाक्स नंबर 999 और पोस्ट बाक्स नंबर 27 बनी.पोस्ट बाक्स नंबर की सुविधा डाक विभाग ने खास उपभोक्ताओं को दी थी.1964 में कन्नड़ फिल्म पोस्टमास्टर में डाकिए को देहात में अहम भूमिका में रखा.हिंदी में डाक घर,गमन ,दुश्मन ,स्वदेश जैसी फिल्मों मे भी डाकिया बहुत अहम भूमिका में रहा.फिल्म स्टार राजेश खन्ना तो अपनी शानदार डाकिए की भूमिका और डाकिया डाक लाया गाने से काफी चर्चा में रहे.हिदीं फिल्मों में डाकिया तमाम मौको पर दिखता रहा है.डाक हरकारा फिल्म में भी डाकिए को बहुत अहम भूमिका में रखा गया।
डाकिया तथा भारतीय डाक तंत्र के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से जानने के लिए लेखक की पुस्तक भारतीय डाक-सदिओं का सफरनामा पढ़ा जा सकता है.पुस्तक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया ,५ ग्रीन पार्क,नयी दिल्ली से मगाई जा सकती है। पेज -४०६ ,कीमत १२५ रु

1 टिप्पणी:

विनोद पाराशर ने कहा…

भारतीय पोस्टमॆन के संदर्म में,खोजपूर्ण व आत्मीय लेख पढने को मिला.लगता हॆ डाक-विभाग के संबंध में काफी-जानकारी हॆ-आपकॊ.मुझे तो इस विभाग के असतित्व पर ही ? लगता नजर आ रहा हॆ.